मानव स्वभाव में विनम्रता का बेहद महत्वपूर्ण स्थान है। विनम्रता का यह गुण जन्मजात नहीं होता, मानव स्वभाव में विनम्रता धीरे-धीरे ही विकसित होती है। जब वह जड़ें जमा लेती है, तो फिर वह आदत बन जाती है। दूरदर्शी माता-पिता अपने परिजनों को सद्गुणों की सपत्ति हस्तगत करते रहे हैं। इस गुण-संपत्ति के आधार पर मानव विकास के पथ पर अग्रसर होता है। सज्जनता का प्रथम सोपान विनम्रता से शुरू होता है। समान आयु के यहां तक कि छोटों के साथ भी वार्तालाप और व्यवहार इस प्रकार किया जाना चाहिए जैसे उनके महत्व को स्वीकार कर सम्मान दिया जा रहा हो। इसके लिए प्राथमिक प्रयोग यह है कि वाणी से मधुर वचन कहे जाएं। किसी को यह अनुभव न होने दिया जाए कि उसे उपेक्षा की दृष्टि से देखा जा रहा है। वह इस कटु प्रतिक्रिया को भूल नहीं पाता और उससे चिपका रहता है।
मनुष्य सम्मान चाहता है। यह उसकी आत्मिक आवश्यकता है। मानव आत्मा महान है और उसका अपना गौरव है। भले ही दुर्गुणों के कारण उसे धूमिल कर लिया गया हो, फिर भी यह प्रवृत्ति बनी रहती है और वह उस ओर आकर्षित होती है, जिस ओर सम्मान मिलता है। आवश्यक नहीं कि किसी की सहायता की जाए और उसकी इच्छानुसार सहयोग दिया जाए। इसके लिए उसे अच्छा या खराब कहने की आवश्यकता नहीं है। इस संदर्भ में अपनी विवशता बताते हुए भी इन्कार किया जा सकता है और उसे इस योग्य समझकर आशा लेकर आने के लिए धन्यवाद दिया जा सकता है। आगंतुक के आने पर उसे छोटे-बड़े का ध्यान रखे बगैर नमस्कार कहना, बैठने के लिए आसन देना और आगमन की प्रसन्नता प्रकट करते हुए समाचार पूछना, यह एक सामान्य शिष्टाचार है। ऐसा व्यवहार तो प्रत्येक के साथ होना चाहिए कि किस कारण आगमन हुआ है? मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं? इसमें कुछ पूंजी नहीं लगती, पर अपनी छाप दूसरों पर पड़ती है। लोक व्यवहार की दृष्टि से भी शिष्टाचार का पालन आवश्यक है। इससे दूसरे व्यक्ति को अपनी सज्जनता की छाप स्वीकारते बनती है और मित्र बनते हैं। यह सामान्य शिष्टाचार भी समय आने पर बहुत बड़ा काम देता है और प्रशंसायुक्त प्रचार करता है। विशेषकर सफलता के शीर्ष सोपान पर विनम्रता बेहद अपरिहार्य हो जाती है। कहा भी जाता है कि जिस पेड़ पर फल लद जाते है वह स्वाभाविक रूप से कुछ झुक जाता है।
[ डॉ. विजय प्रकाश त्रिपाठी ]