अरविंद मोहन

पहले दिल्ली विधानसभा के उपचुनाव और अब दिल्ली नगर निगम चुनावों के नतीजों से यह स्पष्ट है कि दो-तीन साल पहले तक एक नए राजनीतिक तूफान की तरह उभर रहे अरविंद केजरीवाल और उनकी आम अदमी पार्टी यानी ‘आप’ की नैया बुरी तरह डांवाडोल है। इसके लक्षण गिनवाने और क्रम निर्धारित करने की जरूरत नहीं है। दिल्ली विधानसभा की राजौरी गार्डन सीट के लिए हुए उपचुनाव के परिणाम के बाद दिल्ली नगर निगम के चुनाव नतीजे आम आदमी पार्टी पर व्यापक असर डालने वाले साबित होंगे। सच तो यह है कि पंजाब और गोवा विधानसभा चुनाव में मिली भारी पराजय के बाद नगर निगम चुनावों के नतीजे उसके वजूद के लिए खतरा बनकर उभरे हैं। आगे क्या-क्या हो सकता है और खासकर 21 विधायकों को संसदीय सचिव बनाने वाले मुकदमे में क्या होगा, इस पर अभी भविष्यवाणी करने की जरूरत नहीं है। इसी तरह अभी यह कहना भी कठिन है कि शुंगलू समिति की रपट क्या असर दिखाएगी? यह सही है कि भाजपा और केंद्र सरकार भी केजरीवाल सरकार को लेकर ‘खास मेहरबान’ रही, लेकिन जब आप बात-बेबात पंगा लेंगे तो अपने राजनीतिक विरोधी से बहुत संयत व्यवहार की उम्मीद भी नहीं कर सकते। हालांकि ‘आप’ की मौजूदा दुरावस्था न बात-बात पर पंगा लेने वाले रवैये से हुई और न सिर्फ मोदी-शाह की रणनीति का ही कमाल है। अगर किसी ने यह कमाल किया है तो अकेले अरविंद केजरीवाल ने ही, जिनका प्रशासनिक कामकाज बहुत खराब नहीं है। उनकी सरकार ने बिजली-पानी वाला अपना वायदा निभाने के साथ सामान्य से बेहतर ही काम किया है। ‘आप’ चाहती तो अपने बहुत ऊंचे वायदों को ‘चुनावी जुमला’ बताकर सिर्फ अपने काम को आधार बनाकर वोट मांग सकती थी। वैसे भी वापसी के लिए जोर लगा रही कांग्रेस के बीच अगर ‘आप’ मुकाबले में मानी जा रही थी तो इसका कारण उसके नेताओं की लफ्फाजी नहीं, बल्कि उनके काम का रिकॉर्ड और संपत्ति कर माफी का वायदा ही था।
अगर पंजाब और गोवा चुनाव में आम आदमी पार्टी को समर्थन मिलता दिखा था तो वह भी उसकी ‘नई राजनीति’ और भ्रष्टाचार विरोधी दर्शन की जगह दिल्ली के कामों की चर्चा की वजह से ही, लेकिन पंजाब में ‘आप’ ने खुद ही लगभग पंथक राजनीति अपना कर अपने काफी वोटरों को दूर कर दिया। वहां एक बाहरी नाम यानी खुद अरविंद केजरीवाल और एनआरआइ समर्थकों के धन के चक्कर में पार्टी स्थानीय लोगों का भरोसा नहीं जीत सकी। पार्टी नेतृत्व इस बुनियादी बात को समझने में असफल रहा कि पंजाब का चुनाव पंजाबियों को लड़ना है, उनके लिए लड़ना है और उनके नेतृत्व में ही लड़ा जा सकता है। पंजाबी वोटर एक दिल्ली वाले को या विदेशों में बस गए लोगों पर कैसे भरोसा कर सकता है? खैर पंजाब में तो कोई आधार भी था जो लोकसभा चुनाव के समय से दिख रहा था, लेकिन गोवा का खेल तो पूरी तरह हवा-हवाई ही रह गया जो ‘आप’ का स्टाइल बन गया है।
यह कहने में हर्ज नहीं कि अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी का आचरण अन्ना आंदोलन वाले दौर में उन्हीं लोगों द्वारा तय मानकों से काफी नीचे चला गया है। इस मंडली से नई राजनीति की उम्मीद थी, नए आचरण की उम्मीद थी जिसका आग्रह पहली बार शासन में आने के समय तक दिखा भी। दोबारा चुनाव के वक्त अरविंद और उनकी टोली ने दिल्ली के मतदाताओं से अपनी गलतियों के लिए माफी मांगी और दिल्ली ने उनको माफ करके रिकॉर्ड जनादेश भी दिया, पर गलतियां सुधारने और पुराने ऊंचे पैमानों पर लौटने की जगह अरविंद और उनकी मंडली गलतियों और खराब आचरण के रिकॉर्ड बनाने में लग गई और कई अवसरों पर तो कांग्रेस और भाजपा जैसे स्थापित दलों की गलतियों से भी आगे निकल गई। उनका कोई मंत्री नकली डिग्रियों के कारोबार में पकड़ा गया या बलात्कार में तो भी उसका पक्ष लेने पार्टी के सारे लोग आगे आए। चुनावी खर्च में आप कहीं भी कथित भ्रष्ट पार्टियों से उन्नीस नहीं दिखी, बल्कि कई बार इक्कीस ही लगी। नेतृत्व के अपने आचरण ने भी पार्टी और उसके पीछे के आंदोलन की भावना को नष्ट किया। पार्टी जिस आंदोलन से निकली थी उससे हर क्षेत्र में अच्छे की उम्मीद थी। इसके लिए पहली जरूरत तो यही थी कि आंदोलन में जुटे अच्छे लोगों की पहचान होती, उनका वैचारिक प्रशिक्षण होता और उनको आगे किया जाता, लेकिन पार्टी नेतृत्व ने अपनी प्राथमिकता कैसे लोगों को आगे करने की रखी, यह साफ होने में देर नहीं लगी। इससे भी बुरा यह हुआ कि जिन लोगों ने पार्टी के इस खराब नजरिये वाले नेतृत्व को स्वीकार नहीं किया उन्हें चुन-चुन कर निशाना बनाया गया जिसकी आखिरी कड़ी प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव, आनंद कुमार और अजीत झा के निष्कासन के रूप में सामने आई। इसके बाद जल्द ही यह तय हो गया कि अगर पार्टी में रहना है तो वह सब चुपचाप देखना और सहना होगा जो पार्टी का नेतृत्व कर रहा है। धीरे-धीरे पार्टी नेतृत्व का मतलब एक परिवार के अलावा एक-दो लोग ही रह गए। अब तो यह भी कहा जाता है कि कुमार विश्वास जैसे नेता अपमानित होकर और मन मारकर ही पार्टी में टिके हैं।
जब किसी दल में विचार न रहे और नेतृत्व के लिए आचरण की मर्यादा का कोई पैमाना न रहे तब पक्ष में जुटी भीड़ भेड़ों के झुंड से अलग आचरण नहीं कर सकती। एक भारी संभावनाओं वाले आंदोलन की इतने कम समय में दुर्गति सिर्फ आप और अरविंद केजरीवाल के लिए ही नहीं, बल्कि पूरी राजनीति के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। अब जब ‘आप’ दिल्ली के नगर निगम चुनाव में भी जीत से काफी दूर रह गई है तो आने वाले दिनों में उसके अंदर भी उथल-पुथल देखने को मिल सकती है। जिस तरह भाजपा उसके पीछे लगी है और जिस प्रकार उसके लोगों की महत्वाकांक्षाएं हैं उसे देखते हुए कहना कठिन है कि कौन भागकर कहां जाएगा और कौन पार्टी में बना रहेगा?
[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं स्तंभकार हैं ]