'अ-मन भाव' मन की निष्कंप अवस्था है। मन को मारना नहीं है, संवारना है। मन स्वभाव से चंचल होता है। वह एक स्थान पर टिकता ही नहीं है। चंचल मन के नाते मनुष्य अशांत रहता है। मन भोगी के पास है और योगी के पास भी। वह ऊपर उठता है तो भक्ति है और नीचे गिरता है तो आसक्ति। मन के बिना मनुष्य कैसा? भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं कि अपने क्षुद्र मन को मेरे, विराट मन से जोड़ दो। यही 'अ-मन' होने का निहितार्थ है। कृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि मुझमें और तुझमें कोई फर्क नहीं है। बस! जीने का सलीका अलग-अलग है। तुम भवसागर के नीचे वासना के कीचड़ में फंसे हो और मैं भवसागर के ऊपर कमलपत्रवत् रहता हूं।

योगी ही मन की असलियत जानता है। वह जानता है कि संसार मनोकल्पित है। एक योगी अपनी तपस्या के बल पर न केवल भौतिक जगत वरन पारलौकिक जगत की बातों को भी आसानी से समझ लेता है। जब तक मन मनमानी करता है, तभी तक अज्ञानी मनुष्य प्रपंच में भटकता है। मन के सधते ही प्रपंच मिट जाता है। मीरा की तो यही अनुभूति है कि मन है तो संसार है और मन नहीं है तो संसार भी नहीं है। प्रगाढ़ निद्रा में मन के न रहने से प्रपंच भी नहीं रहता, परंतु जाग्रत और स्वप्न में जो प्रपंच भासित है, वह केवल मन के नाते। 'अ-मन' होते ही योगी शरीर-संसार में रहते हुए भी उनसे अलिप्त रहता है। विवेक और वैराग्य द्वारा मन को शांत और निर्मल किया जा सकता है। निर्मल मन में प्रभु का दीदार होता है, जिसे दर्शन की भाषा में 'आत्मबोध' कहते हैं। मन का मालिक बनो, गुलाम नहीं। मन विचारों का प्रवाह है। विचार सुंदर है, तो मन भी सुंदर, जैसा विचार वैसा मन। जैसा मन वैसा मनुष्य। मन आदतन वासना की नाली में बहना चाहता है। शास्त्रों की झाड़ू से मन की सफाई करनी होगी, संतों की संगति से पुताई करनी होगी, उच्च आदशरें से उसे सजाना होगा, श्रेष्ठ गुणों से उसे संवारना होगा। तभी मन के भवन में परमात्मा का वास होगा।

[डॉ. दुर्गादत्त पांडेय]