हृदयनारायण दीक्षित
संविधान भारत का राजधर्म है। यहां संविधान की ही सत्ता है। संविधान उद्देश्यविहीन नहीं होते। हमारे संविधान के उद्देश्य सुस्पष्ट हैं। संविधान की उद्देशिका में इनका समावेश है। संविधान सभा ने 22 जनवरी 1947 को एक उद्देश्य-संकल्प पारित किया था। संकल्प प्रस्ताव नेहरू ने रखा था। इसमें कहा गया था, ‘संविधान सभा भारत को स्वतंत्र प्रभुत्व संपन्न गणराज्य के रूप में घोषित करने के अपने दृढ़ और सत्यनिष्ठ संकल्प की और भारत के भावी शासन के लिए संविधान बनाने की घोषणा करती है।’ सामाजिक आर्थिक, राजनीतिक न्याय और राष्ट्रीय एकता, अखंडता आदि के उल्लेख के बाद अंत में कहा गया था कि यह प्राचीन भूमि विश्व में अपना समुचित और गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त करेगी। संविधान निर्माताओं ने घोषित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए अनेक संस्थाएं गढ़ीं। राष्ट्रपति, संसद, राज्यपाल, विधानमंडल संवैधानिक संस्थाए हैं ही। निर्वाचन आयोग, महालेखाकार एवं सिविल सेवा सहित अन्य संस्थाएं भी हैं। संसदीय जनतंत्र इन्हीं संस्थाओं से गतिशील होता है, लेकिन दो तीन दशक से संवैधानिक संस्थाओं पर अपनी गरिमा बनाए रखने का संकट है।
निर्वाचन आयोग के कामकाज की प्राय: सराहना हुई है, लेकिन कुछ माह पहले संपन्न उप्र, पंजाब आदि विधानसभा चुनावों को लेकर कई दलों द्वारा इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों पर हमला बोला गया। आम आदमी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने तो वोटिंग मशीनों से दल विशेष के ही परिणाम निकलने के आरोप लगाए। आयोग ने मशीनों से मनमाना परिणाम निकालने के लिए दलों को निमंत्रित भी किया था। वे पीछे हट गए। साफ हो गया कि आयोग पर धांधली का आरोप मिथ्या था। दुनिया को गलत संदेश गया कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में चुनावी धांधली होती है। आयोग स्वाभाविक ही आहत है। आयोग ने विधि मंत्रालय को चिट्ठी भेजकर ‘न्यायालय की अवमानना वाले अधिनियम 1971’ में संशोधन की मांग की है और अपने प्राधिकार की रक्षा के लिए कानून का संरक्षण देने को कहा है। आयोग ने पाकिस्तानी निर्वाचन आयोग द्वारा इमरान खान पर की गई कार्रवाई का उल्लेख भी किया है। संवैधानिक संस्थाओं पर हमले की यह घटना नई नहीं है। निर्वाचन आयोग को स्वयं अवमानना सुनने का अधिकार देना अलग बात है, लेकिन आयोग के पत्र से सभी संवैधानिक संस्थाओं को अपने पद, प्राधिकार और कर्तव्य पालन के लिए सुरक्षा कवच उपलब्ध कराने का मुद्दा खड़ा हो गया है। 2012 में नियंत्रक और महालेखा परीक्षक यानी कैग पर हमलावर एक वरिष्ठ कांग्रेसी मंत्री ने सार्वजनिक बहस की चुनौती दी थी। संवैधानिक संस्थाओं पर आसीन महानुभाव बहस में नहीं उलझ सकते। संविधान सभा में 30 मई 1949 को कैग की प्रतिष्ठा पर चर्चा के क्रम में विश्वनाथ दास ने कहा था कि भविष्य में केंद्रीय कार्यपालिका और महालेखा परीक्षक के दायित्व निर्वहन में कोई कलह न हो, इसलिए आवश्यक उपबंध जरूरी हैं। डॉ अंबेडकर ने भी टिप्पणी की थी कि इस प्राधिकारी का स्थान भारतीय संविधान में सबसे महत्वपूर्ण है। वह देखेगा कि संसद ने जिस व्यय के लिए मत दिया है उससे अधिक व्यय न हो। उसके कर्तव्य न्यायपालिका से अधिक महत्वपूर्ण हैं, लेकिन कैग को सुरक्षा कवच नहीं मिले। संविधान निर्माता संभवत: आश्वस्त थे कि भविष्य में भी संवैधानिक संस्थाओं का आदर होता रहेगा, लेकिन वैसा नहीं हुआ। संवैधानिक संस्थाएं पिटती हैं तो संविधान भी पिटता है और जब ऐसा होता है तो आमजनों का विश्वास भी टूटता है।
राष्ट्रपति और राज्यपाल भी प्रतिष्ठित संवैधानिक संस्थाएं हैं। लोकसभाध्यक्ष एमए आयंगर ने पीठासीन अधिकारियों के दार्जलिंग सम्मेलन में कहा था, राज्यपाल राज्य का संविधान प्रमुख है। उनके भाषण के अवसर पर गरिमा जरूरी है। इस अवसर की छेड़छाड़ राज्य की एकता पर चोट है। तबसे तमाम समितियां बनी, प्रस्ताव पारित हुए, लेकिन अनुकूल परिणाम सामने नहीं आए। अभी हाल में उप्र में राज्यपाल के अभिभाषण पर अभद्र कृत्य के दौरान कागज के गोले फेंकने के साथ ही सीटी तक बजाई गई। मूलभूत प्रश्न है कि संवैधानिक संस्थाओं के अवमान और अपमान पर रोक लगे कैसे? बेशक संसद और विधानमंडल को विशेषाधिकार अवमान पर दंड देने की शक्ति है, लेकिन राष्ट्रपति और राज्यपालों के अभिभाषण को सदन की कार्यवाही नहीं माना जाता। पद प्राधिकार के रक्षण और कर्तव्यपालन के लिए सुरक्षा कवच जरूरी है। यही लाचारी कैग, निर्वाचन आयोग सहित अन्य संस्थाओं की भी है। दंड देना शुभ नहीं होता। तुलसीदास ने रामचरित मानस में रामराज्य को दंडविहीन बताया है। लिखा है कि दंड केवल साधु और योगी ही धारण करते है। रामराज्य का आदर्श एक सुंदर कल्पना है तो भी दंड देना कष्टकारक ही होता है। लाखों लोगों के प्रतिनिधि सांसद-विधायक को दंड देना अच्छा नहीं कहा जा सकता, लेकिन सम्माननीय जनप्रतिनिधि द्वारा जानबूझ कर किए गए असभ्य आचरण को क्षम्य भी नहीं कहा जा सकता। आखिर पदासीन मुख्यमंत्री या पूर्व मुख्यमंत्री द्वारा निर्वाचन आयोग के कृत्य और उपकरणों को भ्रष्ट कहा जाना दंडनीय क्यों नहीं है? एक नेता द्वारा रिजर्व बैंक के तत्कालीन गवर्नर की राष्ट्रनिष्ठा पर सवाल उठाना गंभीर मसला ही था। सुप्रीम कोर्ट ने एक बड़बोले नेता के अमर्यादित बयान का संज्ञान लिया और उन्हें माफी मांगनी पड़ी, लेकिन मूल प्रश्न जस का तस है कि अपने आक्रामक बयानों से संवैधानिक संस्थाओं के काम काज में बाधा डालने वाले शक्तिशाली लोगों को शालीन बनाने का उपाय क्या है? न्यायपालिका या विधायिका की तर्ज पर हरेक संस्था को अपने अवमान की सुनवाई करने के अधिकार नहीं दिए जा सकते। संस्थाओं को भी विश्वसनीय होना चाहिए। ब्रिटिश हाउस ऑफ कामंस के हालिया चुनाव में कोई भी घटना नहीं घटी। पुलिस भी दूर थी। क्या भारत में ऐसा संभव है? दलतंत्र ऐसा नहीं होने देगा। भारतीय चिंतन में गलत काम रोकने का पहला उपाय है-ग्लानि या पश्चाताप। अपने किए धरे पर पछतावा। दलतंत्र में ऐसे पश्चाताप करने वाले सौभाग्यशाली कम हैं। लोकनिंदा का भय भी एक उपाय है, लेकिन लोकनिंदा से कोई नहीं डरता। दंड ही व्यवस्था का प्रमुख उपकरण है। प्रशासनिक सेवाएं भी अपमान से आहत हैं। बेशक संवेदनहीन हैं तो भी उनका विकल्प नहीं। वे राजसत्ता के अनुसार अनुकूलन में माहिर हैं। उन्हें तमाम सुरक्षा कवच भी उपलब्ध हैं, लेकिन बड़ा हिस्सा आहत है।
सर्वोच्च न्यायालय संविधान का संरक्षक और व्याख्याता है। वह तमाम जरूरी अवसरों पर स्वयं भी सक्रिय होता है। संवैधानिक संस्थाओं के अपमान/अवमान को रोकने के लिए उसे कोई उपाय खोजना चाहिए। मामले की सूचना पर या स्वत: संज्ञान लेकर भी। निर्वाचन आयोग ने विधि मंत्रालय से अतिरिक्त शक्ति की मांग की है। सुप्रीम कोर्ट को स्वयं संज्ञान लेकर सभी संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा और कर्तव्य पालन का वातावरण बनाने का तंत्र विकसित करना चाहिए।
[ लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं ]