गुवाहाटी हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में सीबीआइ की संवैधानिकता का प्रश्न उठाया है। न्यायमूर्ति आइए अंसारी व इंदिरा शाह की डिवीजन बेंच ने नवेंद्र कुमार की याचिका पर यह फैसला सुनाया और कहा कि सीबीआइ को दिल्ली स्पेशल पुलिस स्टैब्लिशमेंट का अंग नहीं माना जा सकता और यह एजेंसी एक पुलिस बल की तरह काम नहीं कर सकती। कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने इस फैसले के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट जाने की बात कही है, परंतु सवाल यह उठता है कि गुवाहाटी हाईकोर्ट को ऐसा फैसला क्यों देना पड़ा? इसके लिए सीबीआइ की पृष्ठभूमि देखनी पड़ेगी। 1946 में भारत सरकार ने दिल्ली स्पेशल पुलिस स्टैब्लिशमेंट एक्ट पारित किया था, परंतु स्पेशल पुलिस स्टैब्लिशमेंट का कार्यक्षेत्र केंद्र शासित प्रदेशों तक ही सीमित था, यद्यपि राज्य सरकारों की सहमति से उसका विस्तार किया जा सकता था। शुरू में यह संस्था इंटेलिजेंस ब्यूरो के अधीन थी। 1948 में एक इंस्पेक्टर जनरल, एसपीई की नियुक्ति हुई और संस्था को उसके अधीन रखा गया। जैसे-जैसे समय बीतता गया एसपीई के कार्यक्षेत्र में विस्तार होता रहा और 1963 तक इसकी परिधि में भारतीय दंड विधान की 91 धाराओं के अपराध, 16 अन्य केंद्रीय अधिनियम और भ्रष्टाचार निरोधक कानून आ गए।

भारत सरकार ने एक अप्रैल, 1963 को एक प्रस्ताव द्वारा सीबीआइ का गठन किया और इसे कार्मिक मंत्रालय के नीचे रखा। कालांतर में सीबीआइ की तीन महत्वपूर्ण शाखाएं बनीं-पहली, भ्रष्टाचार निरोधक शाखा, दूसरी आर्थिक अपराध शाखा और तीसरी विशेष अपराध शाखा, परंतु यह तथ्य अपनी जगह बना रहा कि सीबीआइ का अस्तित्व दिल्ली स्पेशल पुलिस स्टैब्लिशमेंट एक्ट 1946 के अंतर्गत है। 1978 में एलपी सिंह कमेटी ने इस बात पर हैरत प्रकट की कि जिन देशों में संघीय ढांचे की सरकार है वहां एक संघीय पुलिस संस्था भी है, जिसका कार्यक्षेत्र सारे देश में होता है, परंतु भारत में यह एजेंसी राज्य सरकारों की सहमति के बिना उनके क्षेत्र में काम नहीं कर सकती। कमेटी ने संस्तुति दी कि एक कानून बनाया जाए जिसके अंतर्गत सीबीआइ को संवैधानिक आधार दिया जाए। 2007 में संसदीय स्थायी समिति ने अपनी 19वीं रिपोर्ट में भी कहा कि सीबीआइ के लिए एक अलग एक्ट बनना चाहिए। प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी 2007 में अपनी 5वीं रिपोर्ट में सीबीआइ के लिए एक नया अधिनियम पारित करने की आवश्यकता पर बल दिया। 2008 में संसदीय स्थायी समिति ने अपनी 24वीं रिपोर्ट में सीबीआइ के कार्यकलाप में राजनीतिक हस्तक्षेप पर खेद व्यक्त करते हुए संस्था की स्वायत्तता पर बल दिया। कमेटी ने सीबीआइ के संसाधनों में वृद्धि और उसके लिए एक अलग से एक्ट बनाने की आवश्यकता का भी उल्लेख किया। कमेटी ने यहां तक कहा कि सीबीआइ को देश के किसी भी हिस्से में अपराध का संज्ञान लेने में कोई रुकावट नहीं होनी चाहिए और इससे देश के संघीय ढांचे पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

दुर्भाग्य से भारत सरकार ने उपरोक्त सभी समितियों की सिफारिशों की अनदेखी की। जो भी सरकार सत्ता में आती थी उसे लगता था कि वर्तमान व्यवस्था ठीक है, क्योंकि उसके अंतर्गत सीबीआइ को जैसे चाहे वैसे घुमाया जा सकता था। 1990 और 1995 में सीबीआइ द्वारा ड्राफ्ट अधिनियम बनाए गए और उन्हें भारत सरकार के पास अनुमोदन के लिए भेजा गया। भारत सरकार ने इन पर भी कोई कार्रवाई नहीं की। आज अगर सीबीआइ के अस्तित्व को चुनौती दी गई है तो उसके लिए भारत सरकार ही पूरी तरह से जिम्मेदार है। इतनी बड़ी संस्था की नींव गृह मंत्रालय का एक प्रस्ताव नहीं हो सकता। विचित्र बात है कि पिछले पांच दशकों में भारत सरकार को सीबीआइ एक्ट बनाने के लिए या तो समय नहीं मिला या उसकी जरूरत नहीं समझी गई। सुप्रीम कोर्ट संभवत: भारत सरकार को बचा लेगा, परंतु उससे सीबीआइ की संस्थागत कमजोरी पर पर्दा नहीं डाला जा सकेगा।

सुप्रीम कोर्ट ने भी सीबीआइ को पिंजड़े का तोता कहते हुए उसकी स्वायत्तता पर चिंता व्यक्त की है। अदालत ने भारत सरकार को सीबीआइ के अधिकार क्षेत्र का पुनरीक्षण करने का आदेश दिया था। तत्पश्चात भारत सरकार ने केंद्रीय मंत्रियों के एक समूह का गठन किया। मंत्रियों ने अपनी संस्तुति में डायरेक्टर की नियुक्ति के बारे में अच्छी संस्तुति दी और कहा कि नियुक्ति एक कोलेजियम द्वारा की जाए, जिसके सदस्य प्रधानमंत्री, भारत के मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा में विरोधी दल के नेता हों, परंतु सीबीआइ के पर्यवेक्षण के लिए मंत्रियों ने तीन सेवानिवृत्त जजों का एक पैनल बनाने की विवादास्पद संस्तुति की। भारत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को एक जुलाई को यह भी बताया कि सरकार सीबीआइ पर सभी आपराधिक अभियोगों में अपना आधिपत्य बनाए रखेगी। स्पष्ट है कि सरकार सीबीआइ को अपने शिकंजे से बाहर नहीं जाने देना चाहती। समस्त स्थिति सुप्रीम कोर्ट के विचाराधीन है।

यहां तीन बातें स्पष्ट हैं एक तो यह कि सीबीआइ को अगर संवैधानिक नहीं तो कम से कम कानूनी आधार आवश्यक है। दूसरा यह कि इस संस्था को स्वायत्तता मिलनी चाहिए और तीसरा यह कि सीबीआइ को संपूर्ण भारत में विशेष प्रकार के अपराधों का संज्ञान लेने का निहित अधिकार होना चाहिए। इस संदर्भ में यह भी आवश्यक है कि सीबीआइ के शीर्ष अधिकारी सत्यनिष्ठा से काम करें। इधर हाल में कई ऐसे मामले सामने आए हैं जिससे पुन: सीबीआइ की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लग गए हैं। कुछ प्रमुख नेताओं के विरुद्ध आय से अधिक संपत्ति के मामले रफा-दफा कर दिए गए हैं। रेलवे घोटाले में भी सीबीआइ ने प्रमुख अभियुक्त को सरकारी गवाह बना दिया है, जो सामान्य नागरिक को भी गले नहीं उतरता। इसमें संदेह नहीं कि यह सब राजनीतिक इशारे पर किया गया है। सीबीआइ निदेशक को सुप्रीम कोर्ट ने पर्याप्त संवैधानिक संरक्षण दे रखा है। इसके बावजूद भी अगर सीबीआइ इस तरह काम करती है तो उससे संस्था के प्रमुख की कानून के प्रति प्रतिबद्धता पर सवाल उठेगा। एक गैर सरकारी संगठन भारत पुनरोत्थान अभियान यानी आइआरआइ, जिसमें देश के जाने-माने लोग हैं, ने हाल में ही सीबीआइ के कार्यकलाप पर निराशा व्यक्त करते हुए कहा है कि सीबीआइ किसी अभियोग में उतनी ही दिलचस्पी लेती है जितना सत्ताधारी पार्टी चाहती है। अगर सरकार चाहती है कि मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाए तो सीबीआइ ऐसा ही सुनिश्चित करती है और यदि सरकार चाहती है कि अभियोग को तेजी से आगे बढ़ाया जाए तो सीबीआइ उतनी ही हरकत में आ जाती है। यह स्थिति दुखद है। सीबीआइ की स्वायत्तता का औचित्य तभी होगा जब सीबीआइ के शीर्ष अधिकारी कानून को सर्वोपरि मानते हुए वाह्य दबाव से ऊपर उठकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें।

[प्रकाश सिंह: लेखक उप्र पुलिस और बीएसएफ के प्रमुख रहे हैं]

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