जब राजेंद्र बाबू की कलम से निकली चंपारणवासियों की व्यथा
बगहा। चंपारण की ऐतिहासिक माटी अपने आप में इतिहास के उन अनछुए पहलुओं को समेटे हुए है जिसे कम ही लोग ज
बगहा। चंपारण की ऐतिहासिक माटी अपने आप में इतिहास के उन अनछुए पहलुओं को समेटे हुए है जिसे कम ही लोग जानते होंगे। देश के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डा. राजेंद्र प्रसाद ने चंपारण में नीलहों पर बर्तानी हुकूमत के जुल्म और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आंदोलन को रेखांकित करते हुए चंपारण में गांधी शीर्षक एक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में देश में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत उठने के बाद के 1917-18 के दौर की चर्चा की है। तब राजेंद्र बाबू महात्मा गांधी के साथ चम्पारण में कैंप कर रहे थे। समय के साथ देश आजाद हुआ। चम्पारण की भूली-बिसरी यादें लिए बिहार से निकलकर डा. राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति भवन पहुंच गए। लेकिन चम्पारण के नीलहों की दुर्दशा और महात्मा गांधी के नेतृत्व में देश के वीर सपूतों का आंदोलन उनकी जेहन में कौंधता रहा। आजादी के बाद राजेंद्र बाबू के नेतृत्व में देश विकास के नये दौर में प्रवेश कर चुका था। इसी बीच सन् 1955 में तिरहुत प्रक्षेत्र के आयुक्त वासुदेव सोहानी ने अपने कार्यालय कक्ष में मिली राष्ट्रपिता की चिट्ठियों की को खोजा। यह चम्पारण के इतिहास के लिए एक ऐतिहासिक खोज थी। दशहरे में अपने पैतृक गांव जीरादेई पहुंचे राजेंद्र बाबू से मिलकर श्री सोहानी ने गांधी जी की चिट्ठियों की पोटली उन्हें सुपूर्द कर दी। राजेंद्र बाबू चम्पारण प्रवास के अनुभवों को भूले नहीं थे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की चिट्ठियों ने उन्हें प्रेरित किया और चम्पारण में गांधी नामक पुस्तक का प्रादुर्भाव हुआ। देशरत्न डा. प्रसाद ने अपनी इस पुस्तक में महात्मा गांधी के अप्रैल 1917 में बांकीपुर से मोतिहारी, बेतिया, नरकटियागंज, लौकरिया, बेलवा आदि गांवों के दौरे और मजदूरों के हाल से जुड़ी बातों को बेहद सलीके से कलमबद्ध किया। उस दौर में रामनवमी प्रसाद, पंडित राजकुमार शुक्ल, बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद, शंभूशरण वर्मा, अनुग्रह नारायण ¨सह, कोकिलमान मिश्र, चंद्रदेव नारायण आदि के असाधारण सहयोग की भी मुक्तकंठ से प्रशंसा की है।
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---- और तब चंपारण में सत्याग्रह हुआ था जवान
सेवा निवृत शिक्षक गणेश विशारद का कहना है कि चंपारण के किसान सत्याग्रह की सौ बरस 2017 में पूरे होंगे। हालांकि किसानों पर जुल्म की शुरुआत इसके तीन साल पहले साल 1914 में ही शुरू हो गई थी, जब ब्रिटिश सरकार ने देश किसानों पर नील की खेती के लिए दबाव बढ़ाना शुरू किया था। वह चंपारण सत्याग्रह ही था, जिसने गांधी को महात्मा बनाया और अपने अधिकार हासिल करने का सत्याग्रह जैसा हथियार दुनिया को दिया। वैसे तो सत्याग्रह का पहला प्रयोग गांधी दक्षिण अफ्रीका में ही कर चुके थे, लेकिन सत्याग्रह जवान हुआ 1917 में चंपारण के संघर्ष में। ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति के बाद नील की मांग बढ़ गई। ईस्ट इंडिया कंपनी ने नीलहे साहबों को जन्म दिया, जिनके अत्याचार और शोषण की कहानी से न सिर्फ चंपारण, बल्कि संपूर्ण देश का इतिहास कलंकित हुआ। वर्ष 1914 में जर्मनी से युद्ध छिड़ जाने के बाद नील की आपूर्ति के लिए चंपारण के किसानों का शोषण दोगुना हो गया। एक आंकड़े के मुताबिक, 1916 में लगभग 21,900 एकड़ जमीन पर आसामीवार, जिरात और तिनकठिया प्रथा लागू थी। चंपारण के रैयतों से 46 प्रकार के कर वसूले जाते थे। इसमें से मड़वन, फगुआही, दशहरी, ¨सगराहट, घोड़ावन, लटियावन, दस्तूरी इत्यादि कर बर्बरता पूर्वक वसूले जाते थे। निलहों के खिलाफ संघर्ष की शुरुआत चंपारण के किसान राजकुमार शुक्ल ने की, तो उन्हें महसूस हुआ कि यह काम मोहनदास करमचंद गांधी की सहायता के बगैर पूरा नहीं हो सकता। कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में राजेंद्र प्रसाद, ब्रज किशोर प्रसाद, राजकुमार शुक्ल और अन्य लोगों ने मिलकर चंपारण का दुखड़ा गांधी को सुनाया और नौ अप्रैल 1917 को गांधी राजकुमार शुक्ल के साथ चंपारण रवाना हुए और यह बयान दिया कि 'एक अनपढ़, ²ढ़ निश्चयी किसान ने मुझे जीत लिया।' गांधी के मोतिहारी आगमन के बाद किसानों में आत्म-विश्वास पैदा हुआ और भारत की राजनीति में एक नई सुबह का संकेत मिला। गांधीजी को धारा 144 के तहत सार्वजानिक शांति भंग करने की नोटिस भेजी गई। गांधीजी ने नोटिस का जवाब दिया, अदालत में उपस्थित हुए और रैयतों के शांतिपूर्ण सहयोग से सविनय सत्याग्रह का दौर शुरू हुआ। इस संघर्ष के सहयात्रियों में राजेंद्र बाबू, अनुग्रह नारायण ¨सह, आचार्य कृपलानी ने सजग सिपाही की भूमिका निभाई। इस सत्याग्रह का ही दबाव था कि मार्च 1918 में चंपारण एग्रेरियन बिल पास हुआ और तिनकठिया सहित सारे अवैध कानून चंपारण से हटा लिए गए। चंपारण सत्याग्रह की विजय के बाद गांधीजी ने पूरी दुनिया को मुक्ति का नया मार्ग दिया।