कोसी का निदान: शोध का विषय
सुपौल। कोसी नदी हिमालय पर्वतमाला में प्राय: 7000 मीटर की ऊंचाई से अपनी यात्रा शुरू करती है।
सुपौल। कोसी नदी हिमालय पर्वतमाला में प्राय: 7000 मीटर की ऊंचाई से अपनी यात्रा शुरू करती है। दुनियां का सबसे उंचा शिखर माउंट एवरेस्ट तथा कंचनजंघा जैसी पर्वत मालाएं कोसी के जल ग्रहण क्षेत्र में आती है। कोसी का कुल जलग्रहण क्षेत्र 74,030 वर्ग किमी है। जिसका मात्र 11,410 वर्ग किमी क्षेत्र भारत में तथा बांकी 62620 वर्ग किमी नेपाल अथवा तिब्बत में पड़ता है।
भूवैज्ञानिकों की राय के मुताबिक हिमालय पर्वतमाला पर जब वर्षा होती है। तब पानी के बहाव के साथ-साथ मिट्टी का क्षरण शुरू होता है। पहाड़ी क्षेत्रों में तेज ढ़लान के कारण यह मिट्टी आसानी से तराई इलाके में आ जाती है। तराई इलाके में आने से धाराओं का वेग कम हो जाता है और मिट्टी को बैठने का मौका मिल जाता है। इसके साथ ही निचले इलाके में मिट्टी बहाव के कारण नदियों के प्रवाह में बाधा पड़ती है। नतीजा होता है कि अक्सर उसकी धारा बदल जाती है। कोसी नदी के प्रवाह में बहकर आने वाली गाद की मात्रा काफी अधिक है।
सिंचाई आयोग बिहार द्वारा पूर्व में दी गई रिपोर्ट को सच मान लें तो नदी के प्रवाह में 924.8 लाख घन मीटर सिल्ट हर साल गुजरती है। यही गाद कोसी की सबसे बड़ी समस्या है। नदी की पेटी में जमा गाद अगले वर्ष नदी के बहाव में रुकावट पैदा करने लगती है। नदी का पानी इसी गाद को काट कर अपना रास्ता बनाने लगती है और नदी की धारा बदल जाती है। यह सदियों से होता आया है। इसी का नतीजा है कि कोसी पूर्व में हर साल कहीं न कहीं तबाही मचाती रही। बाढ़ रोकने के लिए तटबंधों का नुस्खा अपनाया गया। लेकिन यहां नदी द्वारा गाद लाने और भूमि निर्माण किये जाने की प्रकृति के कारण बाधक बनने लगी। बांध जहां पानी का फैलाव रोकने लगा, मिट्टी और गाद का भी फैलाव रूका। नदी की तलहटी उंची होने लगी। यही नदी का उठता तल और बदलती धारा तटबंधों के टूटने का कारण बनने लगा। ऐसा नहीं कि इन मुद्दों पर किसी की नजर नहीं गई अथवा इन मुद्दों पर कभी बहस नहीं हुए। लेकिन कोसी के बाढ़ की समस्या और इसका निदान यह एक शोध का विषय है। यह तो साफ है कि इतनी मात्रा में सिल्ट के जमाव को तटबंधों को उंचा कर नहीं रोका जा सकता है।
- कोसी नदी को नए नजरिए से देखने की जरूरत
जल विशेषज्ञ व नदी घाटी पर कार्य कर चुके भगवानजी पाठक बताते हैं कि कोसी नदी को नए नजरिये से देखने की जरूरत है। इसके लिए कोसी के वतर्मान हाइड्रोलॉजी, ज्योग्राफी व इकोलॉजी पर सम्पूर्ण अध्ययन की जरूरत थी। सरकार हजारों करोड़ रुपये जीर्णोद्धार पर खर्च तो कर लिया, मगर कुछ लाख रुपये नदी के चरित्र को समझने के लिए वैज्ञानिक अनुसंधानों पर खर्च करती तो कोसी के चरित्र में भारी परिवर्तन आता। इसके मौजूदा प्रवाह-मार्ग, दोनों तटबंध के अंदर के तल आसपास कंट्री साइड के तल से ऊंचे हो गए हैं। ऐसी परिस्थति में कोसी को तटबंधों के अंदर रखना अब मुमकिन नहीं रह गया है। भले ही तटबंधों को ऊंचा और पक्का कर हम कुछ साल नदी को तटबंधों के अंदर बहा लें, लेकिन स्थायी तौर पर हम ऐसा नहीं कर सकते। ़
-उपधाराओं को मिले पुनर्जीवन
जल संरक्षण पर लंबे समय से कार्य कर रहे ग्राम्यशील के सचिव व मेघ पानि अभियान के जिला प्रभारी चंद्रशेखर के विचार हैं कि प्रकृति के अपने नियम हैं। उससे मनुष्य को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से छेड़छाड़ नहीं करना चाहिये। इसे प्रकृति का धरोहर मान जीवन जीना सीखना होगा। नदी को अविरल बहने के लिये छोड़ दिया जाना चाहिये। लेकिन अब चुकि तटबंध के बिना आम जनजीवन की तबाही काफी बढ़ जायेगी। इसलिये उपधाराओं को पुनर्जीवित करने की जरूरत है ताकि नदी की धारा का प्रवाह इन उपधाराओं में बंटेगा और तटबंध पर दवाब कम होने लगेगा। इसके लिये जगह-जगह स्लुईस गेट आदि का निर्माण किया जाना चाहिये। ऐसे में जहां नदी का दवाब तटबंधों पर कम होगा वहीं भूमि का रिचार्ज होता रहेगा।