नक्शे में आज भी मौजूद है रेलवे की जमीन
ईस्ट इंडिया कम्पनी के तहत पूर्व में प्रतापगंज भीमनगर के बीच रेल लाइनें बिछाकर रेल चली थी जो कहा जाता
ईस्ट इंडिया कम्पनी के तहत पूर्व में प्रतापगंज भीमनगर के बीच रेल लाइनें बिछाकर रेल चली थी जो कहा जाता है कि दो चार दिन ही मात्र चली। यह भी कहा जाता है कि रेल जो प्रतापगंज से भीमनगर आई वह बाढ़ की विभीषिका की भेंट चढ़ते हुए वापस न लौट सकी और कोसी के गर्भ में समाते हुए पूरा रेल लाइन ध्वस्त हो गया। आज भी इस रेल लाइन की रेलवे की भूमि नक्शे में है और भीमनगर के कटैया में एक कुंआ अवशेष के रूप में खड़ा है।
कालातर में जब ललित बाबू रेलमंत्री बनें तो उनके द्वारा ध्वस्त सभी रेल परियोजनाओं को स्वीकृति देकर क्रमश: कार्य योजनाओं को मूर्त रूप दिया जाने लगा। जिसके तहत 1938 किमी रेल योजनाओं को स्वीकृति मिली थी। उनके असामयिक निधन के बाद भारत नेपाल का यह सीमावर्ती क्षेत्र रेलवे के लिए तरसता ही आ रहा है। कोसी परियोजनाओं के निर्माण को लेकर बथनाहा से भीमनगर और नेपाल के चकरघट्टी तक नेरौगेज रेल लाइनें बिछाई गई थी। 1893 से 09 अगस्त 1910 तक प्रतापगंज भीमनगर और 1972 से स्वीकृत वीरपुर बथनाहा रेल लाइनों का सर्वेक्षण कार्य रेल मंत्रालय द्वारा 2005 में कराया गया था। इस क्षेत्र की स्वीकृत योजनाएं फाइलों में गुम है। मगर इस दोनों रेलों की आवश्यकता को लेकर बराबर इस क्षेत्र में आदोलन का सिलसिला जारी रहा है। सीमावर्ती इस क्षेत्र में रेल परियोजनाओं के पूर्ननिर्माण को लेकर सर्वदलिय संघर्ष समिति के बैनर तले कई बार पदयात्रा की गई। फिर भी आजतक इन मागों की फाइलें रेल मंत्रालय से जोनल ऑफिस तथा वहां से समस्तीपुर डिविजन ऑफिस तक दशकों से सफर कर रही है। यह सुदुर इलाका अंतरराष्ट्रीय सीमा पर अवस्थित रहने के कारण आज भी इस्ट इंिडया कम्पनी एवं रेलवे के मानचित्र पर अपनी मौजूदगी का एहसास करा रहा है। मगर अबतक इस क्षेत्र के लोगों को रेल नसीब नही हो सका है। जबकि भारतीय रेलवे के इतिहास में प्रतापगंज - भीमनगर- बथनाहा 27 किमी दूरी की है। जिसके लिए पूर्व से ही भूमि भी उपलब्ध हैं फिर भी राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में यह मात्र इतिहास के पन्नों में ही दर्ज है।