प्रदेश में जातियों को पुचकारने लगे हैं सियासी दल
बिहार में चुनाव से पहले इस बार फिर जातीय कर्णधारों को सियासी पतवार मिलने लगे हैं। सभी दल जातियों की मनुहार में जुट गए हैं। दलित-महादलित के मुद्दे पर घमासान तो पहले से ही है।
पटना [अरविंद शर्मा]। बिहार में चुनाव से पहले इस बार फिर जातीय कर्णधारों को सियासी पतवार मिलने लगे हैं। सभी दल जातियों की मनुहार में जुट गए हैं। दलित-महादलित के मुद्दे पर घमासान तो पहले से ही है। अब दूसरी जातियों की गोलबंदी भी तेज हो गई है। इनके सम्मेलन आयोजित होने लगे हैं। अभी आगे भी कई कार्यक्रम प्रस्तावित हैं, जिन पर माई समीकरण के बूते डेढ़ दशक तक राज करने वाले लालू प्रसाद और नीतीश के साथ-साथ भाजपा की भी नजर है। सबका अपना समीकरण है, अपने-अपने दाव हैं। जाहिर है, बिहार में जातियों की जकड़बंदी इस बार भी टूटती नहीं दिख रही है।
बिहार जातीय आधार पर चुनाव के लिए हमेशा से बदनाम रहा है। चुनावी मौसम के नजदीक आते ही जातीय नेताओं को पुचकारने का काम तेज कर दिया गया है। नीतीश कुमार के दस वर्षों के शासनकाल में बहुत हद तक जातियों की गोलबंदी खत्म होती दिख रही थी लेकिन इस बार मार्च महीने से ही पटना में जिस कदर जातीय माहौल को सियासी प्रोत्साहन दिया जाने लगा, उससे साफ जाहिर है कि बिहार फिर से पुराने ढर्रे पर लौटता दिख रहा है।
सियासत के प्रतिद्वंद्वी तेली, बढ़ई और चौरसिया जाति को अति पिछड़ा वर्ग में शामिल करने के राज्य सरकार के फैसले को भी इसी नजरिए से देखने लगे हैं। भाजपा नेताओं का मानना है कि नीतीश कुमार ने इसके जरिए जातीय राजनीति का मास्टर स्ट्रोक खेला है। इस आरोप की वजह भी है। पटना में अभी हाल में जब चौरसिया सम्मेलन का आयोजन किया गया तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उसमें बतौर मुख्य अतिथि शिरकत की। प्रजापति सम्मेलन में भी लालू प्रसाद और नीतीश कुमार दोनों को जाना था। नीतीश तो नहीं गए लेकिन लालू पहुंचे और अपने अंदाज में समाज के नेताओं का मनुहार भी किया। इसके पहले तेली महासम्मेलन में भी नीतीश का इंतजार किया जाता रहा था।
कई जातियों के सम्मेलन में भाजपा नेता भी भाग ले चुके हैं। फरवरी के आखिरी सप्ताह में नीतीश के विरोध में आयोजित कुर्मी सम्मेलन में सुशील कुमार मोदी ने शिरकत की थी। इसी तरह का एक सम्मेलन 23 मई को पटना के रवींद्र भवन में गोस्वामी महासभा का होना है, जिसमें भाजपा नेता सुशील मोदी, नंदकिशोर यादव और मंगल पांडेय को भाग लेना है। महासभा के प्रदेश अध्यक्ष धनंजय गिरी के दावे के मुताबिक ये सारे नेताओं की मौजूदगी रहेगी। एक जून को एसके मेमोरियल हॉल में भूमिहारों का भी सम्मेलन प्रस्तावित है।
सियासी लाभ के लिए जातीय आधार पर हो रही गोलबंदी में भी कई तरह की गुटबंदी दिख रही है। अप्रैल के पहले सप्ताह में पटना में आयोजित निषादों के सम्मेलन में मंत्री बैजनाथ सहनी को नहीं बुलाया गया। समाज के उत्थान के नाम पर बड़े-बड़े दावे किए गए और पूर्व केंद्रीय मंत्री जयनारायण निषाद को भी वह सम्मान नहीं मिला, समाज के नाम पर जिसके वह हकदार थे। सम्मेलन में एक तीसरा ध्रुव साफ साफ दिखा। हालांकि इसके विरोध में बैजनाथ सहनी भी अपने समर्थकों को गोलबंद करने में जुट गए हैं।
जाहिर है, चुनाव से पहले अभी और भी कई जातियों के कर्णधार पटना के गांधी मैदान या श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल की शोभा बढ़ाएंगे। मार्च-अप्रैल से शुरू हुई इस परंपरा का अंत चुनाव की घोषणा से पहले दिखने के आसार नहीं हैं।
बिहार में जातीय हिसाब
यादव : 14
कोइरी : 5
कुर्मी : 4
अत्यंत पिछड़ा वर्ग : 30
मुस्लिम : 16.5
महादलित : 10
दलित : 6
भूमिहार : 6
ब्राह्मïण : 5
राजपूत : 3
कायस्थ : 1
(आंकड़े जगजीवन राम शोध संस्थान से)