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फिर 'लालू स्टाइल' में राजद सुप्रीमो

90 के दशक में बिहार पर हावी हो जाने के बाद लगभग तीन दशक की राजनीति में राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद ने तीन दौर देखे। मंझधार में डगमगाए भी, लेकिन पतवार पर पकड़ बनाए रखी।

By Pradeep Kumar TiwariEdited By: Published: Tue, 30 Jun 2015 09:56 AM (IST)Updated: Tue, 30 Jun 2015 09:58 AM (IST)

पटना [अरविंद शर्मा]। 90 के दशक में बिहार पर हावी हो जाने के बाद लगभग तीन दशक की राजनीति में राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद ने तीन दौर देखे। मंझधार में डगमगाए भी, लेकिन पतवार पर पकड़ बनाए रखी। उनके सामने फिर से करो या मरो जैसी स्थिति है।

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कानूनी लफड़े ने लालू को अंदर तक जकड़ रखा है। चालाकी का तेज डगमगा गया है, लेकिन बेबाकी फिर उफान पर है। ऐसा लगता है कि उन्होंने फिर सबकुछ शून्य से शुरू कर दिया है। उनका स्टाइल, उनका अंदाज 90 के दशक में लौटने लगा है।

पिछले दिनों पार्टी की प्रमंडलवार बैठकों में कार्यकर्ताओं से संवाद के दौरान लालू के इस स्टाइल की झलक भी मिली। सब कुछ साफ-साफ। किसी शब्द से और किसी शख्स से परहेज नहीं।

जिसे नहीं बोलना चाहिए था उसे भी संकेतों में कह दिया। उनके पुराने साथी इसे ही लालू स्टाइल राजनीति बताते हैं। ...और यह भी जोड़ते हैं कि बिहार की सत्ता से उखडऩे के बाद लालू खो गए थे। उनमें रवानगी फिर आ रही है।

कैसे? इसके लिए 90 के दशक के लालू की ओर लौटना पड़ेगा, जब वह दलितों और पिछड़ों की हिमायत के नाम पर ब्राह्मïणवादी व्यवस्था का विरोध कर रहे थे। सांप्रदायिकता से मुकाबले के बहाने आडवाणी का रथ रोक दिया था।

भक्तिभाव से सपरिवार छठ पूजा करने वाले लालू अब फिर ब्राह्मïणवाद का विरोध करने लगे हैं। शिव चर्चा और यज्ञ के आडंबर की ओट में राजनीति करने वालों से कार्यकर्ताओं को सचेत कर रहे हैं।

उनके डायलॉग की शिल्प-शैली 90-95 वाले लालू की याद दिला रही है। लोकसभा चुनाव के दौरान सियासी संयम के साथ विरोधियों की आलोचना करने वाले लालू अब खुलकर उन्हें ललकारने लगे हैं।

भाजपा को निर्वंश कहने में भी झिझक नहीं दिखाई। यहां तक कि बिना प्रसंग बताए जयप्रकाश नारायण (जेपी) को रेल से कटवाने की साजिश करने का आरोप भाजपा (तत्कालीन जनसंघ) के नेताओं पर मढ़ दिया। रालोसपा सांसद अरुण कुमार के अमर्यादित बयान पर दो टूक बोल दिया कि सोये लोगों को मत जगाओ। सारे दृष्टांत लालू के पुराने रूप में लौटने की गवाही देते हैं।

क्यों बदल रहे लालू : लालू में राजनीति की विपरीत धार में भी पतवार नहीं छोडऩे और आखिर समय तक खुद का आकर्षण बनाए रखने का राजनीतिक माद्दा है। लालू ने मौजूदा हालात को समझा और समय रहते अकेलेपन से खुद को उबारने में जुट गए।

लालू ने इस बार सोच-समझकर ही नीतीश के साथ समझौता किया है, क्योंकि समय के साथ उनका काफिला कमजोर होता जा रहा था। भरोसेमंद साथी एक-एक कर दूर होते जा रहे थे।

रामकृपाल यादव, श्याम रजक, अखिलेश सिंह, रंजन यादव, सोमपाल शास्त्री और रामबचन राय सरीखे नेताओं ने लालू के काफिले से अलग राह चुन ली। साधु-सुभाष ने भी साथ छोड़ दिया। पप्पू यादव कभी विश्वसनीय नहीं रहे।

विरासत की बात पर वह पहले से ही दामन झटकने के लिए तैयार बैठे थे। ऐसे में बचे हुए साथियों को मंजिल तक ले जाने की कवायद तो करनी ही थी।

लालू के मुरीद नीतीश : कभी राजद शासन की आलोचना करने वाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने हाल में बयान दिया कि लालू जब अपने रौ में आ जाएंगे तो विरोधियों को पसीना छुड़ा देंगे। नीतीश के मुरीद होने की वजह भी है।

दरअसल, जिस स्टाइल और ठेठ गंवई अंदाज में लालू ने राजनीति की शुरुआत की थी, वह उन्हें उत्कर्ष पर ले गई थी। उस दौर में कांग्र्रेस के क्लासिक सलीके और संस्कृति से अलग लालू ने राजनीति की एक नई शैली विकसित की थी।


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