विधान सभा चुनाव : असली रणभूमि बनेंगे बिहार के गांव
बिहार के गांवों में 88 फीसद आबादी रहती है और शहरों में सिर्फ 11 फीसद। जाहिर है, निर्णायक जीत के लिए असली रणभूमि गांव ही बनने जा रहे हैं। गांवों के 54.33 फीसद परिवार भूमिहीन हैं, 43.85 फीसद लोग निरक्षर हैं और 2.73 फीसद को ही आयकर से वास्ता है।
पटना [अरविंद शर्मा]। बिहार के गांवों में 88 फीसद आबादी रहती है और शहरों में सिर्फ 11 फीसद। जाहिर है, निर्णायक जीत के लिए असली रणभूमि गांव ही बनने जा रहे हैं।
गांवों के 54.33 फीसद परिवार भूमिहीन हैं, 43.85 फीसद लोग निरक्षर हैं और 2.73 फीसद को ही आयकर से वास्ता है। इन ग्र्रामीण मतदाताओं को रिझाना-मनाना और समझाना किसी भी दल के लिए आसान नहीं होगा। यहां चुनाव जीतने के तय फार्मूले भी फेल हो सकते हैं। आंकड़ों के संदर्भ में ग्र्रामीणों की अपेक्षा और सियासी दलों के शोर के बीच बिजली, सड़क, स्कूल और शिक्षा के मुद्दे बड़ा फर्क डाल सकते हैं।
गांवों में चलती सियासी लहर
माना जाता है कि शहरों की चुनावी हवा ही गांवों तक पहुंचती है। मगर सच यह भी है कि बिहार में अब गांव भी सियासी लहर पैदा करने लगे हैं। एक गांव का रुझान देखकर पड़ोस के गांव वाले प्रभावित होते हैं और इस तरह उस पूरे इलाके का संदेश शहरों तक पहुंचता है।
कई अशिक्षित परिवारों के बच्चे भी अब पढऩे अथवा नौकरी करने के लिए बड़े शहरों में रहने लगे हैं। छुïिट्टयों में घर जाते हैं तो चौपालों पर देश-दुनिया और राजनीति की बातें करते हैं। उनकी भी सुनते हैं और अपनी भी सुनाते हैं।
ग्र्रामीणों का यू-टर्न वहीं से हो जाता है। इस बार ऐसे मतदाताओं का मिजाज टटोलना और उसके मुताबिक रणनीति बनाना जरूरी होगा।
स्कूल, शिक्षा और साइकिल
पांच हजार रुपये से कम की मासिक आमदनी पर गुजर-बसर कर रही बिहार की करीब 70 फीसद ग्र्रामीण आबादी को अपने बच्चों के लिए बेहतर शिक्षा चाहिए। चाहे पढ़ा-लिखा परिवार हो या निरक्षर, बच्चों को लेकर सबके सुंदर सपने होते हैं। उन पर सर्वाधिक असर डालती है बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, घर के करीब में अच्छा स्कूल और साइकिल से स्कूल जाती बेटियां।
दो दशकों में बिहार के गांवों में भारी बदलाव आया है। जात-पात धीरे-धीरे पीछे छूट रहा है और सबसे बड़ा मुद्दा स्कूल-कॉलेज बनने लगा है। बदलते दौर में ग्र्रामीणों में आगे बढऩे की ललक पैदा हो रही है। ऐसे में जिसके वादों में ज्यादा सचाई नजर आएगी, वह इतिहास रचेगा।
बिजली व सड़क भी महत्वपूर्ण
दो दशकों में बिहार के गांवों में भी भारी बदलाव देखा जा रहा है। गुरबत में रहने वालों को भी बिजली चाहिए। देर शाम थके-हारे काम से लौटने के बाद बल्ब के प्रकाश में पढ़ते बच्चों को देखकर उन्हें अच्छा लगता है। उनके लिए विकास के मायने यही हैं।
साइकिल चलाने के लिए भी उन्हें सीधी-सपाट सड़कें चाहिए। टूटी-फूटी सड़कों का सीधा मतलब है उनके गांव की उपेक्षा हो रही है। उनका विधायक उनकी सुध नहीं ले रहा है। जाहिर है, जो सड़क बनाएगा, जो बिजली देगा या जिनके ऐसे वादों में दम नजर आएगा, उसका पलड़ा भारी दिखेगा।