बिहार : नोट ही नकली या फिर दावे, वायदे व राजनीति के सिद्धांत भी
बिहार चुनाव में झूठे वादे, नकली नोटों के साथ ही राजनीति के सिद्धांतों की चर्चा आजकल हर तरफ हो रही है।
पटना [सुनील राज]। ट्रेन अपनी रफ्तार में थी। जनरल बोगी में अमूमन जैसी भीड़ होती है, ठीक वैसी ही आज भी थी। सब्जी की टोकरी खाली कर अपनी मंजिल को वापस होती कुछ महिलाएं, आफिस के काम निपटा कर घर को लौटते कुछ बाबूनुमा लोग। और भी बहुत लोग। चलती ट्रेन की इसी भीड़ में चाय-चबेना, कुरमुरे के साथ न जाने कितने नए चेहरे नामूदार होते और फिर निकल जाते 'चाय, गरम चाय'।
ट्रेन ने हथीदह स्टेशन छोड़ा ही था कि चाय वाले की आवाज फिर सुनाई पड़ी थी। मैले कुचैले से कपड़ों में बैठी उस बुजुर्ग महिला ने आवाज दी थी, कै रुपा के चाय? चाय वाले ने बगैर उत्तर दिए प्लास्टिक का ग्लास निकाला, चाय उड़ेली और तब चाय थमाते हुए जवाब दिया पांच रुपया। महिला ने चाय बगैर थामे जवाब दिया पांच रुपा के वैल्यू ने छौ की।
शायद वो बाबू किसी बैंक में काम करते थे, बोल उठे माई पांच रुपये पर चर्चा अब बेकार है। अब तो असली पांच रुपये कोई दे दे तो समझिए ईमानदारी कायम है। बगल मे खड़े एक व्यक्ति ने टोका था क्या मतलब? बस फिर तो बहस का आगाज ही हो गया। चुनाव में देख लीजिए क्या-क्या हो रहा है।
पहले तो रुपये का लालच देकर अपने मर्जी से प्रशासन चलाते थे, सरकार चलाते थे अब जनता को भी चलाने लगे हैं। फिर किसी ने पूछा था 'मतलब'। मतलब साफ है, देख लीजिए राजनीतिक दलों ने चुनाव को प्रभावित करने के लिए पूरे बिहार में पैसों का मायाजाल फैला कर रख दिया है। देख ही रहे हैं कितनी मोटी-मोटी रकम पकड़ी जा रही है।
बहुत देर से सुन रहे एक व्यक्ति ने अपना मौन तोड़ा। बोले, असली को मारिए गोली अब तो स्थिति यह हो गई है कि नकली नोट तक का सहारा लिया जा रहा है। बात आगे चल निकली थी। चाय वाले तक ने चाय-चाय की आवाज लगानी बंद कर दी और सुनने लगा। एक ने कहा, तीन ही दिन में देख लीजिए करोड़ों के नकली नोट पकड़ में आ गए हैं।
पटना से लेकर मधेपुरा तक में नकली नोट इस बात का संकेत हैं कि अब राजनीति में लुभाने के लिए नेता जी नकली नोट भी व्यवस्था करने लगे हैं। सौ रुपये खर्च करो हजार रुपये ले लो। उपर की बर्थ पर बैठे एक अधेड़ से व्यक्ति ने कहा था बढिय़ा है। जो जनता नोट लेकर वोट देने में विश्वास करती है उसके साथ ऐसा ही होना चाहिए। कुछ का विरोध था तो कुछ सहमत भी।
मोकामा स्टेशन आ गया था। ट्रेन रुकी और फिर चल पड़ी। बहस नए मुकाम पर थी। कॉलेज में पढऩे जैसी उम्र लग रही थी उस नौजवान की। उसने निर्णायक अंदाज में कहा था, अब तो लगता है जैसे पूरी राजनीति ही गंदगी से भर गई है। लुभाने का काम तो आजादी के बाद से था ही अब तो नई परंपरा बन रही है।
नेता लोग जान गए हैं ये जनता है और इसे ऐसे ही ठगा जाता रहेगा, तो उसने तमाम पैंतरे आजमाने शुरू कर दिए हैं। नकली नोट देगा, नकली दावा करेगा, नकली वायदे करेगा और तब भी हम मजबूर होकर उसे ही वोट देंगे, और कोई रास्ता भी तो नहीं है। बात गहरी थी। सोचने पर विवश करती। यही ही है क्या राजनीति में नोट ही नकली आ गए हैं या फिर दावे, वायदे और राजनीति के सिद्धांत भी नकली हो गए हैं।