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बिहार विधानसभा का समर, झारखंड का सबक

भाजपा की राह रोकने के लिए कांग्रेस, राजद और जदयू को बिहार के चुनाव मैदान में जाने से पहले अतीत से सबक लेना होगा। महज आठ महीने पहले झारखंड विधानसभा चुनाव में तमाम प्रयासों के बावजूद तीनों दलों का गठबंधन पूरी तरह सफल नहीं हो सका था।

By Amit AlokEdited By: Published: Thu, 23 Jul 2015 09:47 AM (IST)Updated: Thu, 23 Jul 2015 09:49 AM (IST)

पटना [अरविंद शर्मा]। भाजपा की राह रोकने के लिए कांग्रेस, राजद और जदयू को बिहार के चुनाव मैदान में जाने से पहले अतीत से सबक लेना होगा। महज आठ महीने पहले झारखंड विधानसभा चुनाव में तमाम प्रयासों के बावजूद तीनों दलों का गठबंधन पूरी तरह सफल नहीं हो सका था।

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सीट बंटवारे का मुद्दा ऐसा उलझ गया था कि तीनों दल अपनी जमीन छोडऩे के लिए तैयार नहीं थे, जिसका नतीजा उन्हें बुरी तरह हारकर चुकाना पड़ा था। यहां तक कि हेमंत सोरेन सरकार में विधानसभाध्यक्ष अन्नपूर्णा देवी और राजद के प्रदेश अध्यक्ष गिरिनाथ सिंह भी अपनी सीट नहीं बचा पाए थे।

आपस में हुई थी फाइट

झारखंड की कुल 81 सीटों पर तीनों ने मिलकर 91 प्रत्याशी उतार दिए थे। यहां तक कि राजद की सीटिंग सीटों पर भी जदयू के प्रत्याशी खड़े हो गए थे। ऐसे में राज्य की 10 सीटों पर गठबंधन के उम्मीदवार आपस में ही फाइट कर रहे थे।

दोस्ती में कुश्ती का अंजाम भी वैसा ही हुआ था। नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के अथक प्रयासों के बावजूद राजद और जदयू शून्य पर आउट हो गए थे। सिर्फ कांग्र्रेस ही छह सीटों के साथ खाता खोल सकी थी, लेकिन उसे भी पिछली बार की तुलना में आधी से भी कम सीटें ही हाथ लगी थी।

2009 के चुनाव में कांग्र्रेस को 14 सीटें मिली थी। इस बार आठ पर साफ हो गई थी। दोस्ताना संघर्ष वाली सभी 10 सीटों में से नौ भाजपा की झोली में गई थी और एक पर बसपा को कामयाबी मिली थी।

यह तब हुआ था जब लोकसभा में बुरी तरह हारने के बाद तीनों दल बिहार मेंं उपचुनाव मिलकर लड़ चुके थे और अपेक्षित सफलता भी हासिल कर चुके थे। पहले तो झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) को भी साथ लेकर चलने की बात थी, लेकिन नामांकन पत्र भरने के पहले ही झामुमो की राह अलग हो गई थी।

फिर गठबंधन में बच गए थे कांग्रेस, राजद और जदयू। तीनों में सीटों का बंटवारा ढंग से नहीं हुआ था। नतीजा यह हुआ कि महागठबंधन के साथी आपस में ही गुत्थम-गुत्था करने लगे थे। पहले चरण से ही यह लड़ाई शुरू हो गई, जिससे आखिरी चरण तक समीकरण गड़बड़ाता गया।

राजद के कब्जे वाली हुसैनाबाद सीट पर जदयू ने अपना प्रत्याशी उतार दिया था। राजद ने छतरपुर में अपना प्रत्याशी देकर जदयू को सबक सिखाने की कोशिश की। मनिका में राजद विधायक को कांग्र्रेस ने चुनौती दे दी।

लेना होगा अतीत से सबक

झारखंड में महागठबंधन का यह पराभव अतीत से सबक लेने के बावजूद समय आने पर बिखर जाने का नतीजा था। बिहार की लड़ाई उक्त तीनों दलों के लिए उससे ज्यादा प्रतिष्ठापूर्ण है।

सवाल उठता है कि क्या बिहार में तीनों दल समय से पहले सीट बंटवारे की गुत्थी सुलझा लेंगे और एकजुटता को मजबूती प्रदान करेंगे या फिर आखिर तक असमंजस बनाए रखेंगे और बाद में अपने में ही घमासान करने लगेंगे? कार्यकर्ताओं के दिल नहीं मिलने अथवा दोस्ती में कुश्ती से कैसे पड़ता है पार्टियों के प्रदर्शन पर प्रभाव? यह समझना जरूरी है।

संयुक्त प्रचार नहीं

झारखंड का परिणाम बताता है कि वरिष्ठ नेताओं के रथ अगर अलग-अलग घूमते हैं तो कार्यकर्ताओं के दिल भी नहीं मिलते। लालू और नीतीश ने झारखंड में मंच शेयर नहीं किया था।

जदयू के झारखंड प्रभारी श्रवण कुमार, कांग्र्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सुखदेव भगत और राजद की अन्नपूर्णा देवी भी अलग-अलग ही प्रचार कर रहे थे। कांग्र्रेस के राष्ट्रीय नेताओं ने भी सहयोगी दलों के लिए काम नहीं किया। बिखर जाने के कारण विरोधियों पर खुलकर हमला नहीं बोल पाए। इससे भाजपा की ताकत बढ़ी।

कार्यकर्ता असमंजस में

संपूर्ण गठबंधन नहीं होने या दोस्ताना संघर्ष का नुकसान सहयोगी दलों को झेलना पड़ता है। दोस्ताना संघर्ष का असर दूसरी वैसी सीटों पर भी होता है, जहां आपसी तालमेल कर प्रत्याशी उतारे जाते हैं।

अन्य सहयोगी दलों के कार्यकर्ता असमंजस में रहते हैं कि किसका समर्थन करें। झारखंड में जिन सीटों पर राजद-जदयू के प्रत्याशी टकरा रहे थे, वहां के कांग्र्रेस कार्यकर्ताओं में असमंजस था कि किसे वोट करें।

फैक्ट फाइल

यहां फ्रेंडली फाइट : गढ़वा, हुसैनाबाद, देवघर, चतरा, छतरपुर, सारठ, गोड्डा, जमुआ, मनिका, कोडरमा

.......

कुल सीटें : 81

.......

पार्टी :.......सीटें..............जीते.....पिछली बार

कांग्रेस : 62..............6..............13

राजद : 20..............0.............. 5

जदयू : 9..............0.............. 2

.......

वोट प्रतिशत

कांग्रेस : 10.5

राजद : 3.1

जदयू : 1


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