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शैतानी वार और बुरे साये से बचाता है रोजा

गोपालगंज। रमनाजुल मुबारक के पहले अशरे खत्म होने को है। जारी अशरा जहन्नम से निजात का है। रमजान की 21

By Edited By: Published: Sat, 27 Jun 2015 06:23 PM (IST)Updated: Sat, 27 Jun 2015 06:23 PM (IST)

गोपालगंज। रमनाजुल मुबारक के पहले अशरे खत्म होने को है। जारी अशरा जहन्नम से निजात का है। रमजान की 21 वीं तारीख से लेकर चांद निकलने तक एक मुसलमान रोजेदार का मस्जिद में रहना सुन्नत है, जिसे एत्तेकाफ कहा जाता है। अंतिम अशरे में शब-ए-कदर को तलाशा जाना जरूरी है। जिस किसी मुसलमान ने अपनी जिंदगी में एक शब-ए-कदर को पा लिया गोया कि तेरासी साल चार महीने खुदा की इबादत में जिन्दगी गुजार दी। हदीशों से यह बात जाहिर होती है कि रमजान शरीफ के अंतिम दस दिनों की किसी रात में यह मुबारक रात आती है। इस रात में कुरान शरीफ पढ़ना, दरुद पढ़ना और दूसरी इबादतो में मशरूफ रहना चाहिए। इसके अलावा अपने गुनाहों को याद करके अल्लाह से मगफिरत मांगा जाना चाहिए। रोजेदार अल्लाह तआला को याद कर अधिक-से-अधिक रोये और अपनी खता पर शर्मिदा हो, और इस रात यह वादा कर ले कि अब कभी गुनाह के नजदीक नहीं जाऐंगे। स्थानीय दरगाह शरीफ के इमाम रोजे की अहमियत पर रौशनी डालते हुए कहा कि रोजा ढ़ाल की तरह है। जिस तरह दुश्मन के वार से बचने के लिए ढ़ाल का इस्तेमाल किया जाता है, ठीक वैसे ही रोजा शैतानी वार और बुरी सायों से बचाता है। जब कोई रोजे से हो तो इसे चाहिए कि इस ढ़ाल को प्रयोग करे। दंगा-फसाद से दूर रहे। अगर कोई रोजेदार को भला-बुरा कहे या लड़ाई की बात करे तो उसको कह देना चाहिए कि मैं रोजे से हूं, मै तुमसे उलझने वाला नहीं। वे कहते हैं कि रमजान के महीने में तमाम मुसलमान अपने और अपने बदन और शरीर को जहां भूखा-प्यासा रखकर स्वस्थ्य बना देता है, उसी प्रकार जुबान, आंख, कान और दिल को भी पाक से पाक करने वाला मुबारक माह है।


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