अपने दम पर कॅरियर के फलक पर पहुंचाया बेटियों को
दरभंगा। डॉ. मधु उपाध्याय माध्यमिक शिक्षा जगत में किसी परिचय का मोहताज नहीं है। बच्चियां उन्हें आयरन
दरभंगा। डॉ. मधु उपाध्याय माध्यमिक शिक्षा जगत में किसी परिचय का मोहताज नहीं है। बच्चियां उन्हें आयरन लेडी के नाम से पुकारती है। शिक्षक उन्हें सम्मान के साथ याद करते हैं। लेकिन उनकी दोनों बेटियां तनुश्री और अनुप्रिया ही जानती हैं कि उन्हें डाक्टर तथा इंजीनियर बनाने वाली मां के कड़क प्रशासक के चेहरे के पीछे संघर्ष का कितना लंबा अनुभव छुपा है। मधु उपाध्याय को दो ही संतान हुई। दोनों बेटी है। लेकिन उन्हें कभी नहीं लगा कि काश एक बेटा भी होता। उनको तो सरकारी नौकरी मिल गई थी। लेकिन पति उच्च शिक्षा ग्रहण करने के बावजूद आर्थिकोपार्जन में पीछे छूट गए। एक वित्त रहित कॉलेज में शिक्षक होने के कारण मधु उपाध्याय पर घर का भी सारा बोझ आ पड़ा। पुलिस पदाधिकारी की बेटी होने के कारण मधु को पता था कि बेटा हो या बेटी उसे सही परवरिश मिले और बेहतर संस्कार मिले तो बेटियां भी बेटों से बेहतर कर सकती है। लेकिन इसके लिए एक मां को कितना संघर्ष करना पड़ा उसे मधु उपाध्याय के वाक्य ही स्पष्ट कर रहे हैं। एक तो स्कूल में शिक्षिका की नौकरी दूसरे दो दो बेटियों के पालन पोषण को समय की आवश्यकता। इन दोनों मोर्चों पर मिल रही चुनौतियों के बीच बेटियों में आकाश छूने की प्रेरणा विकसित करने का ही दूसरा नाम मधु उपाध्याय बना। अब शिक्षिका से प्रधानाध्यापिका बन गई थी। वह भी प्रमंडलीय मुख्यालय के सबसे बड़े प्लस टू बालिका हाईस्कूल की। पठन पाठन के साथ प्रशासक और फिर घर पर एक मां का तीनों रूम का जब संगम बना तो एक बेटी तनुश्री आज डॉक्टर बन कर समाज सेवा कर रही है तो दूसरी इंजीनियर बेटी मनुप्रिया प्रबंध के क्षेत्र में आज आकाश को छूने का प्रयास कर रही है। मधु यही पर नहीं रूकी। माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए 2007 में उनका चयन राज्य शिक्षक पुरस्कार के लिए हुआ। अगले ही वर्ष 2008 में राष्ट्रपति ने उन्हें शिक्षक पुरस्कार प्रदान कर बेटियों को भगवान का रूप मानने वाली मधु उपाध्याय के अथक संघर्ष को संबल दे दिया। मधु कहती हैं कि हमें अपने जीवन में पति के साथ उनके परिवार का सहयोग तो मिला लेकिन एक महिला के नाते समाज में कई जगह संघर्ष भी करना पड़ा। पुरूष प्रधान समाज कठिनाई से ही महिला का वर्चस्व स्वीकार करता है। इसका तल्ख अनुभव भी मिला। घर में भी और घर से बाहर भी दोनों जगह संघर्ष करना पड़ा। लेकिन मैं तो अपने को महिला मान ही नहीं रही थी। एक सामान्य व्यक्ति की भांति जीवन की हर चुनौती का सामना किया। दोनों बेटियों ने भी मेरी सोच में ढलकर अपने कॅरियर को ऐसे संवारा कि बेटे की कमी का अहसास तक नहीं होने दिया। ना तो मुझे महिला होने का आभास हुआ और ना ही बेटियों को कभी किसी हीन भावना का।