बिचड़ा बचाने में छूट रहे पसीने
डुमराव (बक्सर) : 'सावन मास बहे पुरवईया, बैला बेचि कीन धेनुगईया' कृषि के प्रख्यात कवि घाघ की पंक्ति ं इन दिनों किसानों की स्थिति पर सटीक रुप चरितार्थ हो रहा है। सावन में पूरे रौ में प्रवाहित हो रहे पुरवईया हवा को फसल उपज के लिहाज से किसान अशुभ संकेत मानते हैं।
आज भी इलाकाई कृषि कार्य घाघ की पंक्तियों पर ही आधारित है। क्योंकि, कृषिशास्त्री घाघ कवि ने मौसम के सभी रूख को फसल उत्पादन के साथ सटीक तरीके से जोड़कर कविता के रूप में पिरोया है। सावन महीने में किसान रोपनी के बजाय बिचड़ा बचाने में परेशान है। वहीं, इक्का-दुक्का किसान निजी संसाधनों के बूते रोपनी कार्य कर रहे हैं। शेष किसान इन्द्र भगवान की दया दृष्टि पर खेती कार्य कर रहे हैं। मजे की बात तो यह है कि कृषि कार्य के ऐन मौके पर सिंचाईं के सभी संसाधनों का मृतप्राय होना किसानों के जले पर नमक बना हुआ है। डीजल की महंगाई के बूते खेतों में धान की रोपनी कराना नब्बे फीसद किसानों के वश के बाहर है। इधर, रोपनी का अंतिम समय देख किसानों के माथे पर बल पड़ने लगे हैं। कड़ाके की धूप देखकर सिर पटकना इनकी लाचारी बनी है। किसान सीताराम सिंह, बड़कन सिंह, कपिलमुनी पाडेय, राजकपिल महतो, सोमारू यादव एवं भरत चौबे ने बताया कि धान के बिचड़ा को खेतों में रोपनी कराने का अंतिम समय बीत रहा है। वहीं, अभी तक नहरों में पानी नहीं आने एवं राजकीय नलकूपों की बदहाली से किसानों का सरकार के विरूद्ध आक्रोश बढ़ता जा रहा है।