योजनाओं का अभाव: आर्थिक संकट में भेड़ पालक
संवाद सूत्र,बड़हरा (भोजपुर): यायावर (घुमंतु) शैली में कई पीढि़यों की जिन्दगी गुजर गयी। जेठ की तपती दु
संवाद सूत्र,बड़हरा (भोजपुर): यायावर (घुमंतु) शैली में कई पीढि़यों की जिन्दगी गुजर गयी। जेठ की तपती दुपहरिया का गम नहीं। पूस की काली व बर्फिली रात पेड़ों के नीचे काट लेने की आदत। सावन-भादो की झमाझम बारिश में भी बेफ्रिक पगडंडियों पर भेड़ चराने वालों का जज्बा अब जवाब दे रहा है। कई पीढि़यों से चली आ रही कंबल बुनकर गडे़रियों की पेशा अंतिम सांसें गिन रही है। बहुतेरे नये काम की खोज में पलायन कर गये। बहुतों ने पेशा बदल दिया। पर अब भी दर्जनों परिवार पुश्तैनी परंपरा व पेशा को संभाले हुए हैं। आर्थिक तंगी से बेहाल इन परिवारों के सामने दो जून की रोटी के भी लाले हैं। भेड़ियों के ऊन खरीदने वाले व्यापारी औने-पौने दाम में भी ऊन लेने नहीं आते। फैशन के दौर में गड़ेरियों द्वारा बनाये कंबलों के खरीददार भी कम पड़ गये हैं। बिक्री कम होने पर कंबल का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है। इनके द्वारा उत्कृष्ट कौशल से बने कंबलों के सामने कंपा देने वाली ठंढ़ी हार जाती है। वहीं कंबलों के बिक्री से प्राप्त अपर्याप्त पैसे को ले बुनकरों के कंबल निर्माण का हौसला भी हार जाता है।
प्रखंड अन्तर्गत पश्चिमी गुण्डी पंचायत के बभनगंावा में चरखा से भेड़ बाल का सूत काटते कई मिले। पर अब वे सूत दूसरों के लिए नहीं बल्कि अपने को ठंड से बचाने के लिए काट रहे थे। कहते हैं, पुश्तैनी कारोबार चौपट हो गया। कंबल बेचने पर उसका मेहनताना भी नहीं निकलता। बताते हैं, घर के बूढ़े व प्रौढ़ भेड़ों को चराने के लिए वर्ष के अधिकांश महीने खानाबदोशी जीवन ही गुजारते हैं। युवक घर गृहस्थी व मजदूरी करते हैं। महिलाएं घरेलू कार्यो के बाद सूत तैयार करती हैं। तैयार सूतों से परिवार के लोग अपने-अपने हुनर के बदौलत तरह-तरह के कंबल, टोपी, जैकेट व कई अन्य चीजें भी बनाते हैं पर बाजार, मांग व फैशन के चकाचौंध में इन गड़ेरियों का पुश्तैनी पेशा सिमट कर आहें भर रहा है। इनके अनुसार किसी सरकार ने भी इनके पेशा व कौशल को बरकरार रखने की कोई जुगत नहीं दिखाई। न कभी कोई आर्थिक लाभ मिला और न ही किसी प्रकार का प्रोत्साहन पैकेज। प्रखंड क्षेत्र के बबुरा, बखोरापुर, लौहर, फरहदा, केवटिया, बभनगावा, अचरज लाल के टोला आदि गांवों में बसने वाले तकरीबन डेढ़ सौ परिवारों के समक्ष पुश्तैनी पेशा के आस्तित्व की चिंता के साथ रोजी-रोटी की चिन्ता भी सता रही है।