Move to Jagran APP

बेगूसराय के मछली बाजार पर आंध्र का कब्जा

बलवंत चौधरी, छौड़ाही (बेगूसराय) : काबर परिक्षेत्र का जल ग्रहण इलाका कभी देसी मछलियों का खजाना हुआ करत

By Edited By: Published: Mon, 23 Feb 2015 06:41 PM (IST)Updated: Mon, 23 Feb 2015 06:41 PM (IST)

बलवंत चौधरी, छौड़ाही (बेगूसराय) : काबर परिक्षेत्र का जल ग्रहण इलाका कभी देसी मछलियों का खजाना हुआ करता था। आसपास में कई ताल- तलैया थे। यहां के स्वादिष्ट छोटी-बड़ी मछलियों की डिमांड दूर-दूर तक थी। लेकिन प्रकृति ने ऐसी करवट ली, कि, जल क्षेत्र सूखने लगे। ताल-तलैया खेल मैदान व खेत बनने लगे। ऐसे में, ईचना, कबई आदि मछलियां अब ढूंढने से भी नहीं मिल रही है। इसके बदले बाहरी मछलियों से बेगूसराय से लेकर बखरी तक का मछली बाजार पट गया है। पर्यावरणप्रेमी एवं वैज्ञानिक इस असंतुलन को पर्यावरण के लिए भी खतरनाक मान रहे हैं।

loksabha election banner

रही है बादशाहत!

पांच वर्ष पूर्व काबर झील परिक्षेत्र के जल जमाव वाले धनफर, महालय, गुआबाड़ी, कोचालय, नयन महल इलाके के अलावा छौड़ाही के कोल्हासन, रामपुर मोईन, खोदावंदपुर के भोनहा, कुरसाहा, लड़बैथा बहियार समेत मंझौल-बखरी के दो दर्जन बहियार एवं 250 छोटे-छोटे ताल तलैया में देसी मछलियों की बहुलता होती थी। मछुआरे रेहू, बुआरी, देसी मांगुर, पोठिया, ईचना, कबई, पाई, चेलवा, झुन्नी, गौंची, रेवा, टेंगड़ा, पतसिया, गरई, बाघी समेत दर्जनों प्रजाति की मछलियों का शिकार कर राज्य के अलावा दूसरे प्रदेशों में इसकी बिक्री करते थे। इससे इलाके के 25 सौ से ज्यादा मछुआरे परिवार की रोजी-रोटी चलती थी।

टेंगड़ा, ईचना हुई विलुप्त

भयंकर सुखाड़ ने पांच वर्ष पूर्व अधिकांश जल क्षेत्र को लील लिया। बीते वर्ष वर्षा हुई तो इन लोकल प्रजातियों के बदले व्यवसायियों ने बाहरी मछलियों से ताल-तलैया को भर दिया। धीरे-धीरे देसी मछलियां गायब हो रही है। वर्तमान में टेंगड़ा, कबई, ईचना तो विलुप्त ही हो गये हैं। अन्य मछलियां भी खोजे नहीं मिल रही है। मत्स्य पालक राम बालक सहनी कहते हैं कि कई प्रकार के बारिक जालों का प्रयोग एवं अंडों वाली मछलियों के शिकार हेतु केमिकल के छिड़काव भी लोकल मछलियों के धीरे-धीरे विलुप्त होने का कारण है।

कहते हैं पर्यावरणविद्

डा. रामकृपालु सिंह बताते हैं कि देसी मछलियों से कई प्रकार के जीवन रक्षक दवाओं का निर्माण होता है। इसे सुखा कर बाहर सप्लाई कर अच्छी आमदनी होती है। इसका अचार भी तैयार होता है। वहीं सैकड़ों लोग रोजगार भी प्राप्त करते हैं। कहा, देसी मछलियां मच्छरों के लार्वे को खा मलेरिया के रोकथाम में सहायक हैं। वहीं जल जमाव के क्षेत्र में कचड़े को खा जलीय पर्यावरण को संतुलित करती है।

स्थिति का कारण

मछली पालक व मछुआरा नेता पंसस झोटी सहनी कहते हैं कि अधिक मुनाफा के कारण लोग देसी की बजाय बाहरी मछलियां पाल रहे हैं। खासकर आंध्र प्रदेश की मछलियों का बोलबाला है। कहा, आंध्रा की मछलियां जल्द बढ़ जाती है। लागत के अनुपात में ज्यादा मुनाफा देती है। बोले, सिर्फ मंझौल अनुमंडल में लगभग 250 फेरीवाले एवं 75 से ज्यादा स्थाई दुकानों, हाट-बाजारों में 35 से 40 क्विंटल मछली रोजाना बिक रही है। कहा, एक से तीन क्विंटल लोकल मछली एवं शेष आंध्रा की मछली की बाजार में हिस्सेदारी है।

कहते हैं जिला मत्स्य पदाधिकारी शंभू कुमार

मछली पालन की कई योजनाएं चलाई जा रही है। देसी मछलियों के पालन हेतु मछुआरों व व्यवसायियों को सहायता एवं सलाह दी जा रही है।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.