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बांस की हरियाली हो रही हलकान, किसान हो रहे परेशान

अररिया, जासं: लगातार कटाई के कारण जंगलों की आह साफ सुनायी दे रही है। अलग बात है कि बचाने के प्रयास भ

By Edited By: Published: Tue, 21 Apr 2015 01:46 AM (IST)Updated: Tue, 21 Apr 2015 01:46 AM (IST)

अररिया, जासं: लगातार कटाई के कारण जंगलों की आह साफ सुनायी दे रही है। अलग बात है कि बचाने के प्रयास भी हो रहे हैं, लेकिन हरियाली के दुश्मन सक्रिय हैं। बात यहां कुछ पारंपरिक वनों की हो रही है, जिनसे जिले के एक बड़े तबके को रोजी रोटी मिलती थी। ये जंगल हैं बांस व बेंत के, जिनसे बने बरतनों की बदौलत किसी वक्त यहां की प्रसिद्धि सुदूर मिथिलांचल तक थी।

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जोकीहाट से सटे पूरब दास नदी बहती है। इतिहास बताता है कि यह नदी बारहवीं सदी में बिहार एवं बंगाल की सीमा थी। इसके किनारे बना सीमा सूचक वीर बांध आज भी मौजूद है। इस नदी के किनारे बेंत के कंटीले पेड़ों का विशाल जंगल था। इन जंगलों की हर साल होने वाली नीलामी से सरकार को राजस्व मिलता था और स्थानीय लोगों को रोजगार। वे बेंत से कट्ठा, नगरी, तराजू के पलड़े व अनाज रखने के बरतन बनाते थे। इनकी मांग हर जगह थी। लेकिन सरकारी उदासीनता के कारण अब बेंत के जंगल उजड़ गये हैं। हालांकि दास नदी के किनारे बेंत जंगलों के पैच आज भी नजर आते हैं।

इसी तरह इस इलाके में बांस की मदद से कई प्रकार की कलात्मक वस्तुओं का निर्माण होता था और बांस कारीगर उन्हें बेच कर भरपूर कमाई करते थे। अमर कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु ने अपनी प्रसिद्ध कहानी 'ठेस' में एक ऐसे ही कारीगर का चित्रण किया है, जो बांस की चिक, शीतलपाटी व ऐसी ही खूबसूरत अन्य चीजें बनाता था।

लेकिन यहां का बांस अब मुंबई व दिल्ली सहित अन्य महानगरों में जा रहा है। पैसों की लालच में लोग बांस के कच्चे बखार भी काट दे रहे हैं। सदियों पुरानी एक परंपरा विलुप्ति के कगार पर है।

सरकार की ओर से अस्सी के दशक में फारबिसगंज के पास भजनपुर में बेंत व बांस प्रशिक्षण केंद्र की स्थापना की गयी थी, लेकिन पूरी प्रकिया उदासीनता की भेंट चढ़ गयी। प्रशिक्षण केंद्र कब का बंद हो चुका है।


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