Move to Jagran APP

गुमनामी की जिंदगी जी रहे आजाद हिंद सेनानी के परिजन

अरुण झा/रेणुग्राम (अररिया), संसू: आजाद हिंद फौज में शामिल होकर अंग्रेजों से लड़ने वाले सेनानी के परिज

By Edited By: Published: Sun, 25 Jan 2015 07:39 PM (IST)Updated: Sun, 25 Jan 2015 07:39 PM (IST)
गुमनामी की जिंदगी जी रहे आजाद हिंद सेनानी के परिजन

अरुण झा/रेणुग्राम (अररिया), संसू: आजाद हिंद फौज में शामिल होकर अंग्रेजों से लड़ने वाले सेनानी के परिजन परती परिकथा की भूमि में गुमनामी की जिंदगी जी रहे हैं।

loksabha election banner

सफेद बालूचरों वाले शुभंकरपुर गांव में 1973 में बर्मा (म्यांमार) से लाये गए विस्थापितों को बसाया गया था। उनमें राधामोहन सिंह भी शामिल थे। उन्होंने नेता जी सुभाष चन्द्र बोस द्वारा स्थापित आजाद हिंद फौज के सैनिक के रूप में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। राधा मोहन सिंह का कुछ साल पहले निधन हो चुका है। फिलहाल उनके तीन पुत्र व परिजन किसानी कर किसी तरह अपनी जीविका चला रहे हैं।

उनके पास वर्मा में आजाद हिंद फौज से संबंधित गतिविधियों के कई दस्तावेज थे। वर्मा से पलायन करते समय राधा मोहन जी ने उन दस्तावेजों को खूब संभाल कर साथ लाया। लेकिन भारत में उनकी कद्र नहीं की गई। शुंभकरपुर में बसने के बाद उन्होंने स्वतंत्रता सेनानी सम्मान पेंशन के लिए आवेदन भी किया। सारे दस्तावेज आवेदन के साथ संलग्न किये गए। लेकिन पेंशन नहीं मिली। उनके साथ केबल बिहार सरकार के अधिकारी द्वारा केंद्रीय गृह मंत्रालय को भेजे गए पत्र की प्रति रह गई। जिसमें उनके आजाद हिंद फौज से जुड़ाव के प्रमाण है। राधा मोहन सिंह के पुत्र राम विशुन सिंह, जय विशुन सिंह व शिव विशुन सिंह ने बताया कि उनके पूर्वज उन्नीसवीं सदी में मि. जानसन द्वारा बिहार के शाहबाद जिले से गिरमिटिया मजदूर के रूप में वर्मा ले जाए गए थे। बर्मा में बिहार के ही एक जमींदार राजा धनुषधारी चौबे भी रहते थे। राधा मोहन के पूर्वज मुंगफली तथा चाय की खेती करते थे, लेकिन युवा राधा मोहन को अंग्रेजों की गुलामी में मन नहीं लगा। जब नेताजी ने आजाद हिंद फौज का गठन किया तो राधा मोहन उसमें शामिल हो गए। उस वक्त वे वर्मा के क्याउटागा पेगु गांव में रहते थे। आजाद हिंद फौज के सेनानी के रूप में उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ खूब लड़ाई लड़ी। वे आल वर्मा इंडियन कांग्रेस के सक्रिय सदस्य भी रहे।

पत्तों के सहारे काटे थे दिन

उनके पुत्र जय विशुन सिंह व राम विशुन सिंह ने बताया कि आजाद हिंद फौज द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में उनके पिता अपने सहयोगियों के साथ कई दिनों तक पत्ता खाकर गुजारे थे। लेकिन 1950 में बर्मा की आजादी के बाद जब वहां बर्मी राष्ट्रवाद तेज हो गया तो भारतीय मूल के लोगों के प्रति कटु भावना उत्पन्न हो गयी। इससे परेशान होकर 1973 में राधा मोहन अपने परिवार के साथ पहले बिहार के मरंगा और बाद में अररिया जिले के मानिकपुर के निकट शुंभकरपुर में आ बसे। लेकिन अपने ही देश में उनकी कद्र नहीं हुई। राधा मोहन जी गुमनामी में ही स्वर्ग सिधार गए। उनका परिवार आज भी पहचान का मोहताज है।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.