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अत्याचार के मारे सभी हैं, लेकिन हमेशा ‘सफरिंग सीता’ बनना जरूरी नहीं

आपने अपने आसपास ऐसे कितने लोगों को देखा होगा, जो बात-बात पर फ़िल्मों के डायलॉग मारते हैं। यही नहीं कुछ लोग तो ऐसे हैं।

By Manoj YadavEdited By: Published: Mon, 26 Sep 2016 10:53 AM (IST)Updated: Mon, 26 Sep 2016 12:14 PM (IST)
अत्याचार के मारे सभी हैं, लेकिन हमेशा ‘सफरिंग सीता’ बनना जरूरी नहीं

आपने अपने आसपास ऐसे कितने लोगों को देखा होगा, जो बात-बात पर फ़िल्मों के डायलॉग मारते हैं। यही नहीं कुछ लोग तो ऐसे हैं, जो फ़िल्मी किरदारों में जीना ज्यादा पसंद करते हैं।
अब क्या करें बॉलीवुड हम भारतीयों की रगों में रच-बस जो गया है। बॉलीवुड का खिंचाव ऐसा है कि इसने हमारे बीच से जैसे धर्म, जात-पात, वर्ग आदि के भेदभाव को ख़त्म कर दिया है, लेकिन इसका दूसरा प्रभाव ये पड़ा है, कि बॉलीवुड हमारे जीवन में ऐसा समा चुका है कि हमारे लिए ‘तथ्य’ और ‘कथ्य’ के बीच फ़र्क करना मुश्किल हो गया है। हमारा मन असली रीति-रिवाजों और बॉलीवुड द्वारा प्रचलित रिवाजों के बीच फ़र्क ही नहीं कर पाता।
लेखिका ‘अपूर्वा पुरोहित’ अपनी बेस्टसेलर क़िताब 'लेडी यू आर नॉट ए मैन’ में ऐसा ही एक अनुभव लिखती हैं। उनकी एक दोस्त तमिल ब्राह्मण परिवार से सम्बंध रखती थी। विचारों से उसका परिवार बहुत रूढ़िवादी था, बल्कि वो कहते थे कि उत्तर भारतीय लड़की होने की वजह से लेखिका के साथ दोस्ती न रखें, लेकिन उनकी दोस्त ने अपने परिवारवालों की एक भी न सुनी और लेखिका से दोस्ती बनाए रखी। उन्हें लड़कियों के स्लीवलेस ब्लाउज पहनने पर भी कड़ी आपत्ति थी।
एक दिन जब लेखिका अपनी दोस्त के यहां एक मैरिज पार्टी में गई, तो हैरान रह गई। सबकुछ बिल्कुल वैसे ही किया जा रहा था, जैसे फ़िल्मों में दिखाया जाता है। लेडीज संगीत, कोरियोग्राफ्ड प्रोग्राम और अधिकतर लड़कियां छोटे-छोटे बिकनीनुमा ब्लाउज पहने दिख रही थीं। जिन्हें स्लीवलेस ब्लाउज पहनने पर भी एतराज था, वो पूरा फ़िल्मी स्टाइल फॉलो कर रहे थे।
इसी तरह पुरानी फ़िल्मों में महिला किरदारों को पति, पिता, प्रेमी, बॉयफ्रेंड, बेटे से सताया या प्रताड़ित दिखाया जाता था। फ़िल्मों में दुखियारी ‘सफरिंग सीता’ टाइप किरदार को दर्शक सहानुभूति के साथ देखा करते थे। एक जमाना था जब दुख सहने का फैशन था और दुखियारों की इज़्ज़त होती थी, पर अब वो ज़माने लद चुके हैं।
‘सफरिंग सीता’ का फैशन कब का बीत चुका है। अब इस पुराने मॉडल को रिटायर करना होगा, ताकि आज की महिलाएं एक नए बराबरी के युग में आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ सकें।
याद रखिए, आज के युग में बेकार में दुख-दर्द सहना महानता नहीं बल्कि बेवकूफी और कमज़ोरी मानी जाती है, इसलिए फ़िल्मी दुनिया के किरदारों में से निकलकर हक़ीक़त की दुनिया में जीना शुरू कीजिए।
ये छोटी-सी झलक है ‘अपूर्वा पुरोहित’ की क़िताब 'लेडी यू आर नॉट ए मैन- एडवेंचर्स ऑफ ए वुमन एट वर्क’की। जिसका हिंदी वर्जन है ‘नारी, मर्द बनना नहीं जरूरी!’
तीन भागों में बंटी ये किताब महिलाओं को अपने जीवन के हर क्षेत्र में, ‘स्वीकार करें, स्वयं ढलें और सफल बनें’ इस त्रिमुखी मन्त्र को अपनाकर सफलता पाने की राह दिखाती है। ‘लेडी यू आर नॉट ए मैन' भारत के सभी जाने-माने बुक-स्टोर्स और वेबसाइट्स पर उपलब्ध है। अमेज़न पर घर बैठे इस लिंक पर क्लिक करके यह क़िताब मंगवाई जा सकती है।

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