नई दिल्ली, अनुराग मिश्र।  बीते कुछ सालों में दुनिया में खाद्य पदार्थों की कीमतों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। वैज्ञानिकों का कहना है कि जिस तरह वैश्विक तापमान में वृद्धि हो रही है, उसके चलते 2035 तक खाद्य कीमतों में सालाना 3.2 फीसदी की वृद्धि होने का अंदेशा है। यही नहीं इससे फसलों की उपज पर भी असर पड़ सकता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि जलवायु में आ रहे बदलावों के कारण आम आदमी के खाने की थाली कहीं ज्यादा महंगी हो सकती है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि तापमान में लगातार होती बढ़ोतरी से गर्मियों की स्थिति विकराल हो सकती है। अनुमान है कि इसका असर साल के बारह महीने पूरी दुनिया में महसूस किया जाएगा। हालांकि जो देश पहले ही बढ़ते तापमान और जलवायु में आते बदलावों से जूझ रहे हैं वहां खाद्य कीमतों में कहीं ज्यादा वृद्धि होने का अंदेशा है। इसी तरह यह प्रभाव गर्मियों में कहीं ज्यादा स्पष्ट होंगें।

जर्मनी के पाट्सडैम इंस्टिट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च और यूरोपियन सेंट्रल बैंक से जुड़े शोधकर्ताओं की स्टडी में सामने आया कि यदि तापमान 2035 के अनुमान के अनुसार बढ़ता है तो यह प्रभाव 30 से 50 फीसदी तक बदतर हो सकते हैं।

वेरिस्क मैपलक्रॉफ्ट द्वारा प्रकाशित नई रिसर्च से पता चला है कि दुनिया में मौजूदा खाद्य उत्पादक क्षेत्रों का लगभग तीन चौथाई हिस्सा 2045 तक गर्मी के तनाव के कारण अत्यधिक जोखिम का सामना करने को मजबूर होगा। बढ़ती गर्मी पहले ही 20 देशों में कृषि के लिए अत्यधिक जोखिम पैदा कर रही है। वहीं जिस तरह से जलवायु में बदलाव आ रहे है उससे भविष्य के तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ यह आंकड़ा बढ़कर 64 पर पहुंच जाएगा। वेरिस्क मैपलक्रॉफ्ट से जुड़े जलवायु विज्ञानी विल निकोल्स का कहना है कि यदि उत्सर्जन और बढ़ते तापमान में होती वृद्धि इसी तरह जारी रहती है, तो विश्व की खाद्य आपूर्ति श्रंखला में पड़ता भीषण गर्मी का तनाव आने वाले वक्त में सामान्य बात हो जाएंगें। इसकी वजह से जहां पैदावार में गिरावट आएगी। वहीं साथ ही खाद्य पदार्थों की कीमतें भी बढ़ेंगी। इसका असर कृषि पर निर्भर देशो पर भी पड़ेगा।

देश में बढ़ती गर्मी का कहर किसानों को दोहरी चोट पहुंचा रहा है। एक तरफ इसकी वजह से जहां फसलों को नुकसान हो रहा है, जो किसानों की आय में गिरावट का कारण बन रहा है वहीं दूसरी तरफ इसकी वजह से किसानों के स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ रहा है। इसकी वजह से कृषि में काम कर रहे मजदूरों में थकन, मितली, चक्कर और हीट स्ट्रोक के मामले बढ़ रहे हैं। काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर (सीइइडब्लू) द्वारा किए शोध से पता चला है कि देश में 75 फीसदी से ज्यादा जिलों पर जलवायु परिवर्तन का खतरा मंडरा रहा है। शोध के मुताबिक देश का करीब 68 फीसदी हिस्सा सूखे की जद में है। इसके चलते हर साल करीब 14 करोड़ लोग प्रभावित हो रहे हैं। जर्नल साइंस एडवांसेज में छपे एक अन्य शोध से पता चला है कि यदि जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए सही समय पर कदम न उठाए गए तो सदी के अंत तक करीब 60 फीसदी से अधिक गेहूं उत्पादक क्षेत्र सूखे की चपेट में होंगे।

सेहत और शरीर के लिए जरूरतमंद खनिजों को कर देता है कम

ग्रेटर नोएडा स्थित शारदा यूनिवर्सिटी की न्यूट्रिशियन और डाइटिक्स विभाग की असिस्टेंट प्रोफेसर मयूरी रस्तोगी बताती है कि बढ़ा हुआ CO2 खाद्य फसलों की पोषण गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। मानव स्वास्थ्य पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। लोगों के लिए अनाज, मक्का और चावल, कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन और आवश्यक पोषक तत्वों के प्रमुख स्रोत है। CO2 का बढ़ा स्तर पौधों का दस फीसद प्रोटीन, पांच से दस फीसद आयरन और जिंक और 30 प्रतिशत तक विटामिन बी कॉम्प्लेक्स कम कर देता है। वह बताती है कि शोध से पता चलता है कि उच्च CO2 के संपर्क से प्रकाश संश्लेषण बढ़ता है, लेकिन मुख्य फसलों की पोषण सामग्री कम हो जाती है। पोषण संबंधी सामग्री को प्रभावित करने के अलावा, पौधों की कोशिकाओं में उच्च CO2 के संपर्क से रासायनिक परिवर्तन भी हो सकते हैं। जिससे एंटीऑक्सिडेंट कम होते हैं और इसका मानव स्वास्थ्य पर नकारात्मक असर पड़ता है।

ब्रोकली जैसे होने लगे गोभी

मॉलिकुलर हार्टिकल्चर में प्रकाशित एक शोध के अनुसार बढ़ते तापमान का असर फसलों के साथ-साथ पौधों में वृद्धि और विकास के सभी पहलुओं पर पड़ता है। एक तरफ जहां इससे फसल की उपज प्रभावित होती है तो दूसरी तरफ इसका प्रभाव गुणवत्ता पर भी पड़ता है। हाल ही में आए एक शोध में सामने आया है कि गर्म तापमान की वजह से ब्रोकली गोभी जैसे हो रहे हैं। यही नहीं इसकी वजह से ब्रोकली की पोषकता भी प्रभावित हो रही है।

अन्य सब्जियों पर असर

भारतीय सब्जी अनुसंधान परिषद, वाराणसी की रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण किसान न केवल गुणवत्तायुक्त सब्जी उत्पाद कर पा रहा, वहीं सब्जियों पर कीट एवं रोग का प्रभाव अधिक हो रहा है।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अनुसार देश में केवल 2.8 प्रतिशत भूमि से संसार की 15 प्रतिशत सब्जियां देश में पैदा हो रही हैं, लेकिन भारत में सब्जियों की उत्पादकतता विश्व के दूसरे देशों के मुकाबले बहुत कम है। यहां पर सब्जियों की उत्पादकता मात्र 17.4 टन प्रति हेक्टैयर है जो विश्व की औसत उत्पादाकता 28.8 टन प्रति हेक्टेयर से कम है। रिपोर्ट के अनुसार देश में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन सब्जी की उपलब्धता 300 ग्राम होनी चाहिए लेकिन मात्र 240 ग्राम ही सब्जियां ही प्रति व्यक्ति प्रतिदिन उपलब्ध हो पा रही है। संस्थान की रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु परिवर्तन से सब्जियों की खेती को बचाने के लिए किसानों को संरक्षित खेती की तकनीक की तरफ बढ़ना होगा। इस तकनीक में अधिक तापमान, कम तापमान, असमय वर्षा, कीट एवं बीमारी से होने से नुकसान को बचाया जा सकता है। संरक्षित खेती के लिए ग्लास हाउस, पाली हाउस, नेट हाउस, ग्रीन हाउस और पानी टनेल का इस्तेमाल करना होगा।

मक्का, गेहूं, धान पर सबसे ज्यादा असर

बिहार कृषि विश्वविद्यालय के एसोसिएट डायरेक्टर रिसर्च प्रोफेसर फिजा अहमद कहते हैं कि क्लाइमेट चेंज ने कृषि पर बड़ा प्रभाव डाला है। वह कहते हैं कि इससे मक्का जैसी फसल हर हाल में प्रभावित होगी क्योंकि वे तापमान और नमी के प्रति संवेदनशील हैं। उनके अनुमान के मुताबिक 2030 तक मक्के की फसल में 24 फीसदी तक की गिरावट की आशंका है। वहीं गेहूं भी इसकी वजह से काफी प्रभावित हो रहा है। वह बताते हैं कि अगर तापमान में चार डिग्री सेंटीग्रेट का ईजाफा हो गया तो गेहूं का उत्पादन पचास फीसद तक प्रभावित हो सकता है। इसके अलावा धान जैसी फसलों की पैदावार में भी गिरावट आ सकती है। चावल, कोको और टमाटर जैसी फसलों पर असर पड़ेगा।

फसलों के प्रभावित होने का ये होगा असर

फिजा अहमद कहते हैं कि मक्के की फसल के प्रभावित होने का बहुत बड़ा असर पड़ेगा। मक्के से कई सारे एग्रीकल्चर उत्पाद बनते हैं। इससे फूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्री बुरी तरह प्रभावित होगी। वहीं गेहूं, चावल में आ रही उत्पादकता में कमी हमारी थाली के स्वाद को बिगाड़ सकती है। वहीं डा. टी. आर. शर्मा कहते हैं कि धान की उत्पादकता पर मौसम ने बीते कुछ सालों में कुछ असर डाला है। हमें पर्यावरण सुधारने के लिए प्रयास करने होंगे वरना मुश्किलें बढ़ सकती है।

पोषण में रही गिरावट

ग्लोबल वार्मिंग और अनियमित वर्षा का अनाज की पोषण गुणवत्ता पर प्रभाव दिखा पाने वाले आंकड़े पर्याप्त नहीं हैं। हालांकि, विशेषज्ञों में इस बात को लेकर सहमति है कि वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में बढ़ोतरी के विपरीत प्रभाव होंगे क्योंकि कार्बन डाइऑक्साइड का बढ़ा हुआ स्तर, उस प्रक्रिया में हस्तक्षेप करता है जो पौधों में प्रोटीन के संश्लेषण के लिए आवश्यक है।

अनाज की पोषण गुणवत्ता में गिरावट “छिपी हुई भूख” को बढ़ा सकती है। यह कुपोषण का ही एक रूप है जिसमें किसी व्यक्ति को उसके भोजन से ऊर्जा की मात्रा तो पर्याप्त मिल जाती है लेकिन उसमें आयरन और जिंक जैसे पोषक तत्वों की इतनी कमी रहती है कि यह उसके स्वास्थ्य और विकास पर नकारात्मक प्रभाव डालता है।

पोषण में गिरावट का प्रभाव

यूएन इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की छठी मूल्यांकन रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि वातावरण में सीओ 2 का स्तर बढ़ने से हमारे भोजन की पोषण गुणवत्ता कम हो जाएगी। इसमें प्रोटीन, आयरन, जिंक और अनाज, फलों और सब्जियों में कुछ विटामिन शामिल हैं। इन महत्वपूर्ण पोषक तत्वों के बिना, अधिकतर लोगों को सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी का खतरा होगा बढ़ गया है, जिससे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की गंभीर समस्या हो सकती है। एक समीक्षा में पाया गया कि हमारे सब्जियों का सेवन कम करने से गैर-संचारी रोगों, जैसे कोरोनरी हृदय रोग और स्ट्रोक और विभिन्न प्रकार के कैंसर का खतरा बढ़ सकता है। इसके अलावा, पर्याप्त सब्जियां और फलियां न खाने से भी पोषक तत्वों की कमी हो सकती है।

दिन और रात का बढ़ता तापमान डालेगा फसलों की पैदावार पर असर

नेचर जनरल में प्रकाशित एक शोध के अनुसार दिन और रात के बीच बढ़ते तापमान का यह अंतर फसल उत्पादन के साथ-साथ पौधों के विकास, पशु स्वास्थ्य और मानव कल्याण को भी प्रभावित कर सकता है। उदाहरण के लिए, दिन और रात के दौरान तापमान में बड़ा अंतर हृदय गति और रक्तचाप को बढ़ाने के लिए जाना जाता है, जिसकी वजह से हृदय और सांस संबंधी बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। रिसर्च से पता चला है कि 1961 से 1990 के बीच दुनिया के करीब 81 फीसदी हिस्से में रात के समय तापमान में वृद्धि दर्ज की गई थी। वहीं इसके विपरीत 1991 से 2020 के बीच बदलाव देखने को मिला है, इस दौरान दुनिया के करीब 70 फीसदी भूभाग में दिन के समय तापमान में वृद्धि का अनुभव किया गया।

अध्ययन से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता जिकियान झोंग के मुताबिक इससे पता चलता है कि हमें जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए कृषि, स्वास्थ्य देखभाल और वानिकी जैसे क्षेत्रों पर ध्यान देने की जरूरत है जो दिन और रात के तापमान में आए बदलावों से कहीं ज्यादा प्रभावित होते हैं।

गर्म हो रही सर्दियां, समाप्त हो रहा बसंत

जलवायु परिवर्तन के कारण पूरे भारत में वसंत ऋतु धीरे-धीरे गायब हो रही है। क्लाइमेट सेंट्रल के एक नए अध्ययन में कहा गया है कि उत्तर भारत के कई हिस्सों में सर्दी से गर्मी जैसी स्थिति में अचानक बदलाव का अनुभव हो रहा है क्योंकि हाल के दशकों में फरवरी में तापमान में तेजी से वृद्धि हुई है। क्लाइमेट सेंट्रल ने आंकड़ों और विशेषज्ञों के हवाले से जानकारी दी है कि जलवायु में आते बदलावों के चलते भारतीय ऋतुओं में बदलाव आ रहा है। यह प्रभाव सर्दी के मौसम पर विशेष रूप से दिख रहा है। देश में कहीं सर्दी के दौरान तापमान बढ़ रहा है, तो कहीं कम हो रहा है। भारत के 33 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के लिए औसत मासिक तापमान की भी गणना की गई है।

किसानों की श्रम उत्पादकता पर असर

जर्नल ग्लोबल चेंज बायोलॉजी में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार बढ़ते तापमान के चलते सदी के अंत तक भारतीय किसानों की श्रम उत्पादकता 43 फीसदी तक गिर सकती है। इसका मतलब है की देश का किसान पैदावार के मौसम में जितना काम कर सकता है, उसका केवल 57 फीसदी ही कर पाएगा। वहीं यदि साल के सबसे गर्म 90 दिनों की बात करें तो वैज्ञानिकों का अनुमान है कि उस दौरान देश के किसानों की श्रम उत्पादकता घटकर महज 27 फीसदी रह जाएगी। मतलब की इस दौरान उनकी श्रम उत्पादकता में 73 फीसदी की गिरावट आ सकती है। अनुमान है कि इसका सबसे ज्यादा असर सिंधु-गंगा के मैदानी इलाकों पर पड़ेगा।

खेती का पैटर्न जलवायु के अनुरूप बदलना होगा

बीएचयू के प्रोफेसर राकेश कुमार का कहना है कि खाद्य सुरक्षा को बनाए रखने और किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए खेती का पैटर्न जलवायु के अनुरूप बदलना होगा। भारत सरकार ने इसके लिए जिला स्तर पर कृषि विज्ञान केंद्रों की स्थापना की है, जहां कृषि जलवायु के हिसाब से उन्नत खेती का प्रदर्शन किया जाता है।

क्लाइमेट चेंज के लिए ये हैं जिम्मेदारी

ए.के.सिंह कहते हैं कि यूं तो क्लाइमेट चेंज के लिए कई चीजें जिम्मेदार हैं। लेकिन सबसे बड़ा कारण कार्बन उत्सर्जन है। इस कार्बन उत्सर्जन पर लगाम लगाने के लिए बड़े पैमाने पर कदम उठाए जाने की जरूरत है। इसके लिए कोल सेक्टर से होने वाले कॉर्बन उत्सर्जन पर खास तौर पर रोक लगानी होगी। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को भी कम करना होगा। एग्रीकल्चर सेक्टर में भी कार्बन उत्सर्जन पर लगाम लगाने के लिए कई कदम उठाए जाने की जरूरत है। कई सारी फसलों जैसे धान की फसल से काफी कार्बन उत्सर्जन होता है। किसान जानवर पालते हैं, इन जानवरों का गोबर खुले में पड़े रहने से भी कार्बन और अन्य ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है।

जनसंख्या बढ़ी पर अनाज की पैदावार हुई कम

लगभग 200 साल पहले, अंग्रेजी अर्थशास्त्री और जनसांख्यिकीविद् थॉमस रॉबर्ट माल्थस ने भविष्यवाणी की थी कि जनसंख्या वृद्धि हमेशा खाद्य आपूर्ति से अधिक होगी। आधुनिक भोजन प्रणाली ने उन्हें गलत साबित कर दिया है। यह बढ़ती आबादी के साथ तालमेल बिठाने में कामयाब रहा है। विश्व के अधिकांश भाग में अकाल समाप्त हो गया है।

अप्रैल 2019 में जर्नल ग्लोबल सस्टेनेबिलिटी की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 1960 और 2010 के बीच, वैश्विक जनसंख्या में 142 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि अनाज की पैदावार में 193 प्रतिशत और कैलोरी उत्पादन में 217 प्रतिशत की वृद्धि हुई। भूख, कुपोषण और बीमारियां हमें परेशान कर रही हैं।

“820 मिलियन से अधिक लोगों को अपर्याप्त भोजन मिलता है और बहुत से लोग कम गुणवत्ता वाले आहार का सेवन करते हैं जो सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी का कारण बनता है और कोरोनरी हृदय रोग, स्ट्रोक सहित आहार से संबंधित मोटापे और आहार से संबंधित गैर-संचारी रोगों की घटनाओं में उल्लेखनीय वृद्धि में योगदान देता है। , और मधुमेह,'' फूड इन द एंथ्रोपोसीन के अनुसार , खाद्य, ग्रह, स्वास्थ्य पर ईएटी-लैंसेट कमीशन द्वारा फरवरी 2019 में प्रकाशित एक रिपोर्ट।

आयोग ने एक सवाल का जवाब देने के लिए दुनिया भर के 37 प्रमुख वैज्ञानिकों को एक साथ लाया। उसने इन सवालों का हल तलाशने के लिए एक साथ काम किया। क्या हम भविष्य में 10 अरब लोगों की आबादी को ग्रहों की सीमाओं के भीतर स्वस्थ आहार खिला सकते हैं? आयोग ने पहला वैश्विक आहार, प्लैनेटरी हेल्थ डाइट प्रस्तावित किया है, जो 10 वर्षों में शहरी उत्सर्जन को 60 प्रतिशत तक कम कर सकता है।

यह आहार ग्रहों की सीमाओं के भीतर उत्पादित और स्थानीय संदर्भों के अनुकूल स्वस्थ और टिकाऊ सामग्रियों पर आधारित है। यह किसी भी भोजन की अत्यधिक खपत को इस हद तक हतोत्साहित करता है कि यह जैव विविधता, पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करता है, और अधिक पौधे-आधारित आहार में बदलाव और मांस-आधारित आहार की खपत को कम करने का प्रस्ताव करता है।

निपटने के लिए अपनाने होंगे ये तरीके

खाने की आदतों में बदलाव करना: स्वस्थ भोजन करने से जलवायु संकट से मुकाबला करने में मदद मिल सकती है। यदि उच्च कैलोरी वाले आहार और पशु-स्रोत वाले भोजन अधिक पौधे-आधारित खाद्य पदार्थ खाते हैं, तो यह उत्सर्जन को कम करने, आहार से संबंधित खतरों से मृत्यु दर को कम करने और स्वास्थ्य में सुधार करने में महत्वपूर्ण रूप से मदद करेगा।

टिकाऊ कृषि और खाद्य प्रथाओं को प्रोत्साहित करना: कृषि और खाद्य प्रक्रियाओं को अधिक जलवायु अनुकूल बनाने के कई अवसर हैं।

शाकाहार का चयन : जॉन्स हॉपकिन्स सेंटर फॉर ए लिवेबल फ्यूचर बेस्ड एट द जॉन्स हॉपकिन्स ब्लूमबर्ग स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के नए शोध के अनुसार शाकाहार का चयन जलवायु परिवर्तन को कम करने में बेहतर परिणाम दे सकता है। शोध के मुताबिक अधिकांश निम्न और मध्यम आय वाले देशों में पर्याप्त मात्रा में सेहतमंद आहार के लिए खाद्य उत्पादन में बढ़ोत्तरी करनी होगी, जिसके कारण पानी के उपयोग और ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन में अधिक वृद्धि होने के आसार हैं। अध्ययन के अनुसार खाद्य उत्पादन के देश की जलवायु के लिए अलग-अलग परिणाम हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, पराग्वे में उत्पादित गोमांस का एक पाउंड डेनमार्क में उत्पादित एक पाउंड गोमांस की तुलना में लगभग 17 गुना अधिक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करता है। अक्सर, यह अंतर चरागाह भूमि और वनों की कटाई के कारण होती है। व्यापार के पैटर्न का भी देशों के आहार संबंधी जलवायु और ताजे पानी पर महत्वपूर्ण प्रभाव होता है।

फसलों की जल्द बुआई से फायदा

रिपोर्ट के मुताबिक फसल कैलेंडर में बदलाव करने से फसल की उपज को नुकसान से बचने और बदलती जलवायु में पानी के उपयोग को कम करने के लिए एक एक बेहतर कदम हो सकता है। वैज्ञानिकों ने भारत और बांग्लादेश में गेहूं और चावल की उपज के साथ ही उष्णकटिबंधीय बहु-फसल प्रणाली पर जलवायु परिवर्तन के असर को समझने, और बेहतर संभावनाओं का अनुमान लगाने के लिए रीजनली कैलीब्रेटेड इंवायरनमेंट पॉलिसी इंट्रीगेटेड क्लाइमेट कृषि विज्ञान मॉडल का उपयोग किया। वैज्ञानिकों ने पाया कि फसलों की बुआई के समय में बदलाव कर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम किया जा सकता है।

हीट वेव के असर से बचा जा सकेगा

रिपोर्ट के मुताबिक गेहूं की फसल को समय से पहले लगाने पर बाद में हीट वेव और बेहद गर्म हवाओं के प्रभाव से बचाया जा सकेगा। तेज गर्म हवाओं के चलते गेहूं के दाने जल्द पीले पड़ जाते हैं और सूख जाते हैं जिससे उत्पादन पर असर पड़ता है। इसके अलावा, खरीफ के समय चावल की समय से पहले बुवाई करने से मानसून की वर्षा का उपयोग करने में मदद मिल सकती है। वहीं धान की फसल में फूल लगने के दौरान पाले से भी बचाया जा सकेगा।

वैज्ञानिक कर रहे हैं कई पहलुओं पर काम

वैज्ञानिकों के मुताबिक 2080 तक जलवायु में परिवर्तन के चलते मौसम में बड़े पैमाने पर बदलाव देखा जाएगा। गर्मी बढ़ने और ठंड में कमी के साथ ही अचानक होने वाली बारिश से फसल पर काफी असर पड़ेगा। ऐसे में खरीफ के मौसम में धान की फसल को समय से पहले लगाने पर मानसून की बारिश का फायदा मिलेगा। ICAR के संस्थान सेंट्रल रिसर्च इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक शांतनु कुमार ने बताया कि जलवायु परिवर्तन के चलते फसलों की पैदावार पर असर पड़ रहा है। मौसम में बदलाव को ध्यान में रखते हुए देश के कृषि संस्थान स्थानीय स्थितियों को ध्यान में रखते हुए फसलों की बुआई और कटाई के समय में बदलाव को लेकर सुझाव भी जारी कर रहे हैं। बढ़ती गर्मी, तेज बारिश और अन्य मौसम के बदलावों को ध्यान में रखते हुए ये बेहद जरूरी भी है। देश के कृषि वैज्ञानिक कई इस तरह फसलों का भी विकास कर रहे हैं जिनके उत्पादन पर ज्यादा गर्मी या बदलते मौसम के चलते बहुत असर नहीं होगा।

नाइट्रोजन की गंभीर कमी

सेंटर फॉर साइंस एंड इंवायरनमेंट की रिपोर्ट के अनुसार ऑर्गेनिक कार्बन की कमी पूरे देश में व्यापक है। 24 राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों में कम से कम आधे मिट्टी के नमूनों में ऑर्गेनिक कॉर्बन की कमी है। उनमें से सात राज्यों में 90 प्रतिशत से अधिक नमूनों की कमी है। हरियाणा की मिट्टी में कार्बनिक कार्बन की सबसे अधिक कमी है, उसके बाद पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, तमिलनाडु, मिजोरम और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह का नंबर आता है। नाइट्रोजन की कमी भी व्यापक और गंभीर है। 32 राज्यों और संघ क्षेत्रों में उनकी मिट्टी के कम से कम आधे नमूनों में नाइट्रोजन की कमी है।