नई दिल्ली, विवेक तिवारी। मौसम विभाग ने इस साल गर्मी के मौसम में देश के कई शहरों में हीटवेव की आशंका जताई है। मध्य और दक्षिण भारत के कई शहरों में तापमान 43 डिग्री तक पहुंचने भी लगा है। बढ़ती गर्मी और हीटवेव के चलते आम लोगों की सेहत पर भी असर पड़ रहा है। हाल ही में देश के 10 बड़े शहरों पर हुए अध्ययन में पाया गया कि साल दर साल बढ़ती हीटवेव की तीव्रता के चलते गर्मी से होने वाली मौतों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। विशेषज्ञों के मुताबिक आने वाले दिनों में सबसे बड़ी चुनौती उमस भरी गर्मी या ह्यूमिड हीटवेव होगी। ह्यूमिड हीटवेव के चलते एक तरफ जहां आम लोगों को रिकॉर्ड किए जा रहे तापमान से ज्यादा गर्मी महसूस होगी, वहीं दूसरी तरफ मच्छरों से फैलने वाली बीमारियों में भी तेजी से बढ़ोतरी होगी। बढ़ती गर्मी से देश से उन इलाकों में भी मच्छरों से फैलने वाली बीमारियां दर्ज की जाएंगी जहां पहले ये बीमारियां नहीं पाई जाती थीं।

भारत सहित दुनिया के कई देशों के वैज्ञानिकों की ओर से 'भारत में मृत्यु दर पर हीटवेव का प्रभाव' विषय पर देश के 10 बड़े शहरों के डेटा का अध्ययन किया गया। इन शहरों में दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, हैदराबाद, बेंगलुरु, अहमदाबाद, पुणे, वाराणसी, शिमला और कोलकाता शामिल थे। वैज्ञानिकों ने पाया कि किसी शहर में हीटवेव जैसी स्थितियां एक दिन दर्ज होती हैं तो दैनिक मृत्यु दर में 12.2% की वृद्धि होती। हीटवेव की स्थिति लगातार दो दिन बनी रही तो मृत्यु दर 14.7% तक बढ़ जाती है। तीन दिन लगातार हीटवेव रहने पर ये 17.8% तक बढ़ जाती है। लगातार पांच दिनों तक अत्यधिक गर्मी की स्थिति दर्ज की जाती है तो मृत्यु दर 33.3% तक बढ़ सकती है।

हीटवेव का ऐलान इन स्थितियों में होता है

आईएमडी का कहना है कि हीटवेव तब होता है, जब तापमान मैदानी इलाकों में 40 डिग्री सेल्सियस, तटीय क्षेत्रों में 37 डिग्री सेल्सियस और पहाड़ी क्षेत्रों में 30 डिग्री सेल्सियस को पार कर जाता है। जब किसी जगह पर किसी ख़ास दिन उस क्षेत्र के सामान्य तापमान से 4.5 से 6.4 डिग्री सेल्सियस अधिक तापमान दर्ज किया जाता है, तो मौसम एजेंसी हीटवेव की घोषणा करती है। यदि तापमान सामान्य से 6.4 डिग्री सेल्सियस अधिक है, तो आईएमडी इसे 'गंभीर' हीटवेव घोषित करता है। आईएमडी हीटवेव घोषित करने के लिए एक अन्य मानदंड का भी उपयोग करता है, जो पूर्ण रूप से दर्ज तापमान पर आधारित होता है। यदि तापमान 45 डिग्री सेल्सियस को पार कर जाता है, तो विभाग हीटवेव घोषित करता है। जब यह 47 डिग्री को पार करता है, तो 'गंभीर' हीटवेव की घोषणा की जाती है।

ह्यूमिड हीटवेव को लेकर बढ़ी चिंता

बढ़ती गर्मी के साथ हवा में आर्द्रता बढ़ने से मुश्किल और बढ़ जाती है। ऐसे में सभी जीवों की सेहत पर बुरा असर पड़ता है। वहीं हीट स्ट्रोक का खतरा भी बढ़ जाता है। मौसम वैज्ञानिक समरजीत चौधरी कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन के चलते ह्यूमिड हीटवेव का खतरा बढ़ता जा रहा है। खास तौर पर इसका खतरा दक्षिण भारत, महाराष्ट्र, बिहार, बंगाल, ओडिशा आदि राज्यों में है। ह्यूमिड हीटवेव की स्थिति में जितना तापमान रिकॉर्ड किया जाता है इंसान सहित सभी जीवों का शरीर या फिर पेड़-पौधे असल में उससे कहीं अधिक तापमान महसूस करते हैं। मशीन में पारा कम दिखता है लेकिन शरीर पर गर्मी ज्यादा महसूस होती है। ऐसा वायुमंडल में नमी बढ़ने की वजह से होता है। तापमान और रिलेटिव ह्यूमिडिटी की एक साथ गणना करने से वेट बल्ब टेम्परेचर या फिर किसी तय स्थान का हीट इंडेक्स निकाल सकते हैं। इससे तापमान और नमी वाली हीटवेव दोनों का पता लगाया जा सकता है।

डिसकंफर्टेबल इंडेक्स बताता है शरीर पर तापमान और आर्द्रता का असर

मौसम वैज्ञानिकों के मुताबिक अगर हवा में आर्द्रता का स्तर 50 फीसदी से ज्यादा हो, हवा की स्पीड 10 किलोमीटर प्रति घंटा से कम हो और तापमान अगर 32 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा हो तो ऐसा मौसम बन जाता हे जिसमें जितना तापमान होता है उससे कहीं अधिक गर्मी और उमस महसूस होती है। वैज्ञानिक इस मौसम को डिसकंफर्टेबल इंडेक्स के तहत नापते हैं। मौसम में असहजता को ध्यान में रखते हुए ही डिसकंफर्टेबल इंडेक्स को बनाया गया है। मौसम वैज्ञानिक समरजीत चौधरी के मुताबिक असुविधा सूचकांक एक सूचकांक है जिसमें हवा के तापमान और आर्द्रता को जोड़ा जाता है, इसके जरिए इन पैरामीटर्स पर इंसान को महसूस होने वाली गर्मी का अनुमान लगाया जा सकता है। उदाहरण के लिए, जब हवा में आर्द्रता का स्तर 70 डिग्री हो और तापमान 32 डिग्री सेल्सियस (90 डिग्री फ़ारेनहाइट) हो और हवा बहुत धीमी हो, तो किसी इंसान को महसूस होने वाली गर्मी लगभग 41 डिग्री सेल्सियस (106 डिग्री फ़ारेनहाइट) के बराबर होती है। इस गर्मी सूचकांक तापमान में 20% की एक अंतर्निहित (अस्थिर) आर्द्रता है।

हीटवेव है जानलेवा

दिल्ली मेडिकल काउंसिल की साइंफिक कमेटी के चेयरमैन डॉक्टर नरेंद्र सैनी के मुताबिक हीट वेव को हल्के में नहीं लेना चाहिए। इससे आपकी जान भी जा सकती है। हमारे शरीर के ज्यादातर अंग 37 डिग्री सेल्सियस पर बेहतर तरीके से काम करते हैं। जैसे जैसे तापमान बढ़ेगा इनके काम करने की क्षमता प्रभावित होगी। बेहद गर्मी में निकलने से शरीर का तापमान बढ़ जाएगा जिससे अंग फेल होने लगेंगे। शरीर जलने लगेगा, शरीर का तापमान ज्यादा बढ़ने से दिमाग, दिल सहित अन्य अंगों की काम करने की क्षमता कम हो जाएगी।

यदि किसी को गर्मी लग गई है तो उसे तुरंत किसी छाया वाले स्थान पर ले जाएं। उसके पूरे शरीर पर ठंडे पानी का कपड़ा रखें। अगर व्यक्ति होश में है तो उसे पानी में इलेक्ट्रॉल या चीनी और नमक मिला कर दें। अगर आसपास अस्पताल है तो तुरंत उस व्यक्ति को अस्पताल ले जाएं।

कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में रामित देबनाथ और उनके सहयोगियों द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार, भारत के कुल हिस्से का 90 फीसदी हीटवेव को लेकर बेहद खतरनाक जोन हैं। वहीं दिल्ली में रहने वाले सभी लोग हीटवेव के इस डेंजर जोन में रह रहे हैं। रिपोर्ट के मुताबिक आने वाले समय में हीटवेव की वजह से देश में लोगों की कार्यक्षमता 15 फीसदी तक घट सकती है। वहीं 480 मिलियन लोगों के जीवन की गुणवत्ता को कम कर सकती है। वहीं 2050 तक हीटवेव से निपटने के लिए सकल घरेलू उत्पाद का 2.8 प्रतिशत खर्च करना पड़ सकता है।

इंटीग्रेटेड रिसर्च एंड एक्शन फॉर डेवलपमेंट और कनाडा की संस्था इंटरनेशनल डेवलपमेंट रिसर्च सेंटर की ओर से दिल्ली और राजकोट के शहरों के लिए हीटवेव दिनों की संख्या में वृद्धि का विश्लेषण किया है। रिपोर्ट के मुताबिक 2018 में दिल्ली में 49 दिनों तक हीट वेव दर्ज की गई जो 2019 में बढ़ कर 66 दिनों तक पहुंच गई जो एक साल में लगभग 35% की वृद्धि को दर्शाता है। वहीं 2001 से 10 के आंकड़ों पर नजर डालें तो हीट वेव के दिनों में 51% की वृद्धि दर्ज हुई। वहीं राजकोट की बात करें तो 2001-10 के बीच कुल 39 दिन हीट वेव दर्ज की गई। वहीं ये संख्या 2011 से 21 के बीच बढ़ कर 66 दिनों तक पहुंच गई।

इंटीग्रेटेड रिसर्च एंड एक्शन फॉर डेवलपमेंट के डिप्टी डायरेक्टर रोहित मगोत्रा के मुताबिक 21वीं सदी में हीट वेव की आवृत्ति और तीव्रता बढ़ने की संभावना है। हाल ही में आई 6 वीं आईपीसीसी रिपोर्ट में पृथ्वी की सतह के 2.0 डिग्री फ़ारेनहाइट (1.1 डिग्री सेल्सियस) के आसपास गर्म होने पर चेतावनी दी गई है। इससे भविष्य में वैश्विक औसत तापमान और हीटवेव में वृद्धि होगी।

मच्छरों से फैलने वाली बीमारियों का बढ़ा खतरा

ICMR सेंटर ऑफ एक्सिलेंस फॉर क्लाइमेट चेंज एंड वेक्टर बॉर्न डिजीज के प्रिंसिपल इनवेस्टिगेटर रहे डॉक्टर रमेश धीमान कहते हैं कि जल जनित और वेक्टर जनित रोग पैदा करने वाले जीवाणु या मच्छर जलवायु के प्रति संवेदनशील होते हैं। हवा में आर्द्रता और गर्मी बढ़ने से मच्छरों के प्रजनन के लिए अनुकूल माहौल बन जाता है। भारत में भौगोलिक परिस्थितियों में बड़े पैमाने पर विभिन्नता है। ऐसे में गर्मी के साथ आर्द्र हवाओं के चलते ये देखा जा सकता है कि सामान्य तौर पर जिन इलाकों में मच्छरों से फैलने वाली बीमारियां ज्यादा देखी जाती हों वहां इनका प्रभाव कम हो जाए वहीं जिन इलाकों में डेंगू और चिकनगुनिया के मामले न मिलते हों या बहुत कम मिलते हों वहां ये बीमारियां काफी तेजी से बढ़ जाएं। इसका सबसे ज्यादा असर पहाड़ी इलाकों या हिमालयी क्षेत्र में देखने को मिल सकता है। इन राज्यों में तापमान में वृद्धि और आर्द्रता के कारण मलेरिया, डेंगू और चिकनगुनिया के मामले तेजी से बढ़ सकते हैं। मच्छर, सैंड फ्लाई, खटमल आदि जैसे बीमारी फैलाने वाले कीटों का विकास और अस्तित्व तापमान और आर्द्रता पर निर्भर करता है। ये रोग वाहक मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया, जापानी एन्सेफलाइटिस, कालाजार जैसी बीमारी बहुत तेजी से फैला सकते हैं। बदलते मौसम के चलते पूरी दुनिया में मच्छरों के प्रजनन के लिए एक बेहतर माहौल बना है। अब मच्छर ऐसे इलाकों में भी पाए जाने लगे हैं जहां पहले ये नहीं थे।

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मलेरिया रिसर्च के वैज्ञानिक डॉक्टर हिम्मत सिंह कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन के चलते पूरी दुनिया में मच्छरों के लिए अनुकूल माहौल बना है। मच्छरों के प्रजनन के लिए अच्छे माहौल वाले इलाके बढ़े हैं। वहीं गर्मी बढ़ने के साथ ही मच्छरों की लाइफ साइकिल तेज हो जाती है। गर्मी बढ़ने से अंडे से एक वयस्क मच्छर बनने के समय में कमी आती है। जिससे मच्छर जल्दी बड़े हो जाते हैं। एक मच्छर के लिए आदर्श तापमान लगभग 25 से 27 डिग्री और आर्द्रता 70 से 80 प्रतिशत है। अगर तापमान आधा डिग्री तक बढ़ जाता है तो मच्छरों के पानी में रहने के समय में कमी आती है और वो जल्दी बड़े हो जाते हैं। ऐसे में आपको उनकी संख्या ज्यादा महसूस होती है। क्लाइमेट चेंज से अगर तापमान बढ़ता है तो हो सकता है देश के कई हिस्से जहां मच्छर नहीं पाए जाते थे या जहां मच्छरों के लिए तापमान अनुकूल नहीं था वहां भी वो पाए जाने लगेंगे। वहीं सामान्य से कहीं ज्यादा तापमान हो जाए तो मच्छर कम भी हो सकते हैं। उदाहरण के तौर पर राजस्थान के गर्म इलाकों में तापमान और बढ़ता है तो मच्छर कम होंगे। वहीं पहाड़ों के घाटी वाले इलाकों में जहां अभी तक सामान्य तौर पर ज्यादा मच्छर नहीं पाए जाते वहां तापमान बढ़ने पर उनकी संख्या बढ़ सकती है। एक बात और ध्यान देने वाली है एक मच्छर के लारवा को व्यस्क मच्छर बनने में कम से कम 7 से 8 दिन लगते हैं। ऐसे में अगर पानी 7 दिनों से ज्यादा इकट्ठा होता है तो वहां मच्छर पनप सकते हैं।

लार्वा को खत्म करना होगा

ICMR की संस्था नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मलेरिया रिसर्च के वैज्ञानिक हिम्मत सिंह कहते हैं कि अन्य मच्छरों की तुलना में टाइगर या एडीज मच्छर में प्रतिरोधक क्षमता ज्यादा बढ़ी है। ये मच्छर अन्य मच्छरों की तुलना में घातक भी हैं। सामान्य तौर पर किसी मच्छर को मारने के लिए 4 से 5 साल तक कोई एक केमिकल इस्तेमाल किया जाए तो वो इसके लिए प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेता है। ऐसे में हमें मच्छरों के लिए दो अलग तकनीकों का इस्तेमाल करना चाहिए। पहली तकनीक में लम्बे समय तक एक केमिकल का छिड़काव नहीं किया जाता है। कुछ समय के अंतराल पर मच्छर मारने के लिए केमिकल बदल दिए जाते हैं। वहीं दूसरी तकनीक को मोजैक तकनीक कहते हैं जिसमें मच्छरों को मारने के लिए किसी एक केमिकल का इस्तेमाल नहीं किया जाता है, बल्कि कई केमिकलों को मिला कर छिड़काव किया जाता है। इस तरह से मच्छरों पर नियंत्रण लगाया जा सकता है। वयस्क एडीज या टाइगर मच्छर को नियंत्रित करना काफी मुश्किल होता है। ऐसे में सबसे बेहतर होता है कि इस मच्छर के लार्वा को ही खत्म कर दिया जाए।