सर्वत्र व्याप्त है मां जगदंबा, देव से लेकर जीवों तक में अंश हैं उनका
जगदंबा हमारे भीतर भी और बाहर भी। उन्हें महाविद्या महामाया महास्मृति महादेवी के रूप में ऋषियों ने पहचाना। वह स्वर हैं प्राणदायिनी सुधा भी हैं। वह कालरात्रि महारात्रि और मोहरात्रि भी हैं। जगदंबा की महिमा दुर्गम है इसीलिए वह दुर्गा कहलाती हैं।
डा. मुरलीधर चांदनीवाला
जगदंबा। एक सर्वोच्च शक्ति, जो सर्वत्र व्याप्त हैं। कभी वह अग्निशिखाओं में होती हैं, कभी आंधी-तूफान में। कभी निर्मल आकाश में जगमगाती हैं, कभी नदियों में उफनती हुई अनंत के महासागर में ऐसे विलीन हो जाती हैं कि उन्हें खोज पाना कठिन। ऋषि विश्वामित्र ने सदियों पहले बताया था कि मां जगदंबा विश्वमोहिनी हैं। वह अपने गर्भ में अनंत रहस्य लिए पृथ्वी बनकर घूम रही हैं। जगदंबा असीम करुणा से भरी हुई हैं। सच्ची श्रद्धा हो तो वह दौड़ी चली आती हैं। प्राणियों में जो चेतना है, माता-पिता की जो छत्रछाया है, नारी की जो लज्जा है, विष्णु की जो महालक्ष्मी हैं, दार्शनिकों की जो मेधा है, भगवान राम की जो शक्ति है, श्रीकृष्ण की जो मुरली है, बुद्ध की जो करुणा और महावीर की जो क्षमा है, वह सब जगदंबा ही तो हैं।
हर आत्मा में व्याप्त अंश
समुद्र में उठने वाली ऊंची लहरों में जगदंबा प्रत्यक्ष होती हैं। हिमालय के उत्तुंग शृंगों पर जगदंबा की प्रसन्न मुद्रा अंकित है। घने जंगलों में वह भूखी-प्यासी तपस्या करती हुई मिल जाती हैं। दुखियों-दरिद्रों में, बेचैन आत्मा में, तड़पते हुए प्राणों में, निर्बल की काया में, निरीह पशु-पक्षियों और नवजात शिशुओं में वह रक्षा कवच बनकर ठहर जाती हैं। जगदंबा विश्वेश्वरी हैं, जगद्धात्री हैं। हमने उन्हें अपने संकीर्ण पैमाने से मापने का यत्न किया, अपनी सारी मलिनताएं माता पर लाद दीं। अपने स्वार्थ के लिए उसे उपयोग में लेने के तंत्र-मंत्र जुटाए, किंतु जगदंबा हमारे साथ होकर भी हमारी नहीं थीं, क्योंकि वह हमेशा ही सत्य के पक्ष में खड़ी होती हैं। अपवित्रता उन्हें सहन नहीं होती और बलात् चेष्टाओं को वह सिरे से नकार देती हैं।
सत्य के सिंह पर विराजमान
पौराणिकों ने जगदंबा को कभी तो प्रेत पर चढ़ी हुई चामुंडा के रूप में देखा, कभी गरुड़ पर विराजमान वैष्णवी के रूप में। कभी वह कमल पर बैठी हुई श्री और लक्ष्मी के रूप में दिखीं, तो कभी हंस पर आरूढ़ सरस्वती के रूप में। देखने वाली जितनी आंखें हैं, जगदंबा के उतने ही स्वरूप। वह देवताओं की स्फूर्ति हैं। देवलोक का समग्र अनुशासन जगदंबा ही सुनिश्चित करती हैं। वह जीवन के समर में विजय का उल्लास लाने वाली आनंद की राजराजेश्वरी हैं। वह एक अकुंठित विचारणा हैं जो अज्ञान और जड़ता के महादैत्य का विध्वंस करने के लिए मनीषियों के अंत: करण से निकल पड़ती हैं। जगदंबा की गहराई, ऊंचाई व विराट स्वरूप जाने बिना ज्ञान-विज्ञान की सब गवेषणाएं पूरी तरह व्यर्थ हैं। वह सत्य के सिंह पर विराजमान हैं और निरंतर विश्व को नया रूप देने का उद्यम कर रही हैं। वह त्रिलोकसुंदरी हैं और उनका एक ही वैश्व-नियम है - शाश्वत प्रेम और शाश्वत सौंदर्य। यही उनकी क्षुधा है, यही तृष्णा, यही वृत्ति और यही तुष्टि है।
बनाती हैं अनुकूल परिवेश
वह जगदंबा है, इसीलिए अपनी संतानों के प्रति उनकी ममता स्वाभाविक है। वह हमारे भीतर सौंदर्य और सामंजस्य की अभीप्सा जगाती हैं व देवप्रतिष्ठा के लिए अनुकूल परिवेश बनाती हैं। इसके लिए उन्हें जो भी काट-छांट करनी होती है, वह अवश्य करती हैं। जब वह हमारे हृदय में आसन लगाकर बैठती हैं, तब जीवन के मंत्र की नींव गहरी हो जाती है और उचारे हुए शब्द महाकाव्य बन जाते हैं। जगदंबा हमसे दुर्घर्ष तपस्या का योग चाहती हैं। वह आती हैं और अद्वितीय आनंद की खोज के लिए अपनी संतति को उत्प्रेरित करती हैं।
शस्त्र और शास्त्र से सुसज्जित
मां जगदंबा के पास अपने शस्त्र और शास्त्र भी हैं। खड्ग, चक्र, गदा, बाण, परिघ और शूल धारण कर जब वह सिंह पर आरूढ़ होकर निकलती है, तब असुर कांपने लगते हैं, भ्रष्ट और अहंकारी भाग खड़े होते हैं। काम, क्रोध, लोभ और मोह के राक्षसों को वह कुचल देती हैं। अंधेरा सिमटने लगता है और महिषासुर के मर्दन से अधर्म का विनाश निश्चय होता है। जगदंबा अपने पास चार तरह के शास्त्र रखती हैं। एक, ज्ञान का योगशास्त्र, जिसे लेकर वह ऋत और सत्य की नींव पर धर्म का सनातन मंदिर खड़ा करती है। दूसरा, भक्ति का योगशास्त्र, जिसे लेकर वह मंदिर में श्रद्धा की मूर्ति गढ़ती हैं। तीसरा, कर्म का योगशास्त्र, जिसके सहारे वह कोटि-कोटि हाथों से काम लेती हैं और चौथा, अध्यात्म का योगशास्त्र, जिसके बल पर हमारे सामने दिव्य जीवन का उद्घाटन करते हुए आनंद के लोक में प्रवेश का मार्ग सुगम करती हैं।
योगमाया से होता नियंत्रण
जगदंबा सदैव हमारे पीछे खड़ी है। वह आत्मशक्ति हैं और अपनी योगमाया से हमें नियंत्रित करती हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश उनके ही रूप हैं। आठों वसु, एकादश रुद्र, द्वादश आदित्य और विश्वदेवता भी उनके ही रूप हैं। आकाश में चमकने वाले ग्रह-नक्षत्र और ज्योतिष्पिंड जगदंबा के ही विग्रह कहे गए हैं। जगदंबा के तीन चरित्र प्रसिद्ध हैं- महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती। महाकाली प्रचंड वेग से दौड़ती हैं और झूठ, आलस्य, द्वेष, अज्ञान और जड़ता को झपट्टा मारकर नष्ट कर देती हैं। हमारे आसपास जो कुछ अशुभ, असुंदर, निस्तेज और मलिन है, वह सब महाकाली के रौद्ररूप के आगे भस्म हो जाता है।
इसके बिना महालक्ष्मी अपना वह साम्राज्य स्थापित नहीं कर सकतीं, जो लोक में आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। महालक्ष्मी हमारे जीवन में मादकता, माधुर्य व सौंदर्य लाती है। महालक्ष्मी के आकर्षण में यह विश्व सुंदर शृंगार में झिलमिलाने लगता है, प्रेम का झरना बहने लगता है, जिजीविषा प्रबल हो उठती है। फिर जब महासरस्वती का उदय होता है, प्रकृति के ऋतुसंहार में मनमयूर नाचने लगता है, देव-मृदंग बजने लगते हैं, कर्म में प्राणशक्ति के संचार होने लगता है और एक प्रयोगविज्ञान स्वर्ग के शिखाग्र तक पहुंच कर भविष्य के द्वार खोल देता है। किंतु उनके पास पहुंचे बिना दुख, मृत्यु और अंधेरे से मुक्ति संभव नहीं। वैदिक ऋषि की यह प्रार्थना हमें कितना बल देती है-
‘जब भी चारों ओर घना अंधेरा हो,
तू मेरे हृदय को प्रकाश से भर कर रखना।
जब भी मुझे पशुता घेरने लगे,
तू ज्वाला बनकर मुझे ऊंचा उठा लेना।।’
(लेखक भारतीय संस्कृति के अध्येता हैं)