एक लंबे समय से इसे लेकर संशय व्याप्त था कि कांग्रेस अपनी परंपरागत सीटों रायबरेली और अमेठी से किसे चुनाव लड़ाएगी। नामांकन के अंतिम दिन उसने यह फैसला किया कि राहुल गांधी रायबरेली से चुनाव लड़ेंगे और अमेठी से गांधी परिवार के विश्वासपात्र किशोरी लाल शर्मा। कांग्रेस अपने इस फैसले को सोची-समझी रणनीति बता रही है, लेकिन आखिर यह कैसी सुविचारित रणनीति है कि एक तो अंतिम समय पर फैसला लिया गया और दूसरे राहुल गांधी की ओर से उस अमेठी का परित्याग कर दिया गया, जहां से वह और उनके पिता राजीव गांधी चुनाव लड़ते रहे हैं।

हो सकता है कि राहुल गांधी रायबरेली से जीत जाएं, क्योंकि वहां से सोनिया गांधी लगातार जीतती रही हैं, लेकिन उनके अमेठी छोड़ने से देश भर में कांग्रेस के कार्यकर्ताओं और समर्थकों को तो यही संदेश गया कि वह पिछले चुनाव में स्मृति इरानी से पराजित होने के कारण इस बार उनका सामना करने का साहस नहीं जुटा पाए। भाजपा ने तो यह प्रचारित करना शुरू भी कर दिया है।

इससे अच्छा तो यह होता कि राहुल गांधी ऐसा कुछ कहकर रायबरेली से भी चुनाव न लड़ते कि वह वायनाड से जीत के प्रति आश्वस्त हैं और दो सीटों पर चुनाव लड़कर मतदाताओं और साथ ही चुनाव प्रक्रिया पर अनावश्यक बोझ नहीं डालना चाहते। यदि उन्हें दो सीटों पर ही चुनाव लड़ना तो था रायबरेली के बजाय अपनी सीट अमेठी क्यों नहीं?

प्रश्न यह है कि यदि राहुल गांधी वायनाड के साथ रायबरेली से भी जीत गए तो कौन सी सीट खाली करेंगे? आखिर इस जटिल प्रश्न को खड़ा करना सोची-समझी रणनीति कैसे हो सकती है? राहुल गांधी के लिए वायनाड और रायबरेली में से किसी एक का चयन करना आसान नहीं होगा, क्योंकि केरल में दो वर्ष बाद विधानसभा चुनाव होने हैं।

यदि वह वायनाड छोड़ते हैं तो केरल की जनता को गलत संदेश जाएगा और यदि रायबरेली छोड़ते हैं तो यह माना जाएगा कि उन्होंने अपनी दादी और मां के निर्वाचन क्षेत्र के स्थान पर वायनाड को अधिक महत्व दिया। राहुल गांधी के लिए रायबरेली छोड़ना इसलिए भी मुश्किल होगा, क्योंकि इससे उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को फिर से खड़ा करने की संभावनाएं और कमजोर हो जाएंगी।

उन्होंने जिस तरह अमेठी के स्थान पर रायबरेली का चयन किया, उससे सहयोगी दल सपा की चुनावी संभावनाओं पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है, क्योंकि उनके फैसले को लेकर यह भी कहा जा रहा है कि उनमें जोखिम लेने की क्षमता नहीं। राजनीति में खुद को स्थापित करने और अपने कार्यकर्ताओं में जोश भरने के लिए नेताओं को राजनीतिक जोखिम उठाने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। चूंकि राहुल गांधी ऐसा करते नहीं दिखे, इसलिए इस पर आश्चर्य नहीं कि यह सवाल भी उठाया जा रहा है कि क्या वह डरो मत के अपने नारे को भूल गए?