राजीव सचान : जब भारत जोड़ो यात्रा अपने समापन की ओर बढ़ रही थी तो ऐसा कहने वालों की कमी नहीं थी कि इस यात्रा ने राहुल गांधी को एक परिपक्व नेता के रूप में स्थापित करने का काम किया है। जब यात्रा समाप्त हुई तो ऐसा कहने वालों की संख्या और बढ़ गई। इसी के साथ यह कहा जाने लगा कि अब कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी एकता आसान हो जाएगी, लेकिन ऐसा होता हुआ दिख नहीं रहा है। पता नहीं राहुल ने भारत जोड़ो यात्रा से क्या अर्जित किया? यदि कुछ अर्जित किया भी होगा, तो लगता यही है कि उन्होंने उसे लंदन जाकर गंवा दिया।

इसलिए नहीं गंवाया कि उन्होंने वहां यह कह दिया कि भारत में लोकतंत्र खत्म हो गया और फिर भी अमेरिका और यूरोप बेपरवाह हैं। यह तो उन्होंने कहा ही था, इसके अलावा यह भी कहा था कि हमारे देश में सिख हैं, मुस्लिम हैं और ईसाई हैं, लेकिन मोदी सरकार इन सबको दोयम दर्जे का नागरिक मानती है। राहुल गांधी कहीं भी कुछ भी कह देते हैं। इंटरनेट के इस जमाने में वह देश में कुछ कहें या विदेश में, इसका उतना महत्व नहीं, जितना इसका कि वह कह क्या रहे हैं? हो सकता है कि कोई और विशेष रूप से कांग्रेसी यह दलील दें कि राहुल गांधी के इस बयान में कुछ गलत नहीं कि भारत में सिख, मुस्लिम और ईसाई दोयम दर्जे के नागरिक हैं, लेकिन कोई भी समझ सकता है कि उनके इस बयान से भारत विरोधी तत्व अवश्य प्रसन्न हुए होंगे।

इन दिनों जब भाजपा इस पर जोर दे रही है कि राहुल गांधी लंदन वाले अपने बयान के लिए माफी मांगे तब कांग्रेस यह बताने में लगी हुई है कि ‘वह सावरकर नहीं हैं।’ सावरकर को कोसना राहुल गांधी का प्रिय शगल है, लेकिन इसमें संदेह है कि वह अपने इस शगल से एक परिपक्व नेता के तौर पर अपनी छवि स्थापित करने में समर्थ हो जाएंगे। वास्तव में वह अपनी ऐसी छवि बना ही नहीं पा रहे हैं और इसीलिए वे विपक्ष की ताकत नही बन पा रहे हैं।

कांग्रेस के लिए यह कहना मजबूरी हो सकती है कि राहुल भविष्य के नेता हैं, लेकिन विपक्ष ऐसा कुछ कहना जरूरी नहीं समझ रहा। भारत जोड़ो यात्रा में राहुल की भागीदारी को लेकर चाहे जितनी प्रशंसा की जाए, इस यात्रा के समाप्त होने के बाद के घटनाक्रम ने उनकी छवि को वैसा ही बना दिया है, जैसी इस यात्रा के पहले थी। अपनी इस छवि के साथ वह कांग्रेस के सर्वोच्च नेता बने रह सकते हैं, लेकिन विपक्ष के नहीं बन सकते। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि एक-एक करके विपक्षी नेता इसी निष्कर्ष पर पहुंचते जा रहे हैं।

बीते दिनों तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी ने राहुल गांधी को निशाने पर लेते हुए यह कह दिया कि अगर राहुल विपक्ष का चेहरा हैं तो फिर कोई भी नरेन्द्र मोदी को खराब नहीं कह पाएगा। उन्होंने यह भी जोड़ा कि राहुल गांधी मोदी की सबसे बड़ी टीआरपी हैं। तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस के बीच कटुता किसी से छिपी नहीं। तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव के वक्त मेघालय गए राहुल गांधी ने कहा था कि भाजपा का काम आसान करने के लिए ही तृणमूल कांग्रेस चुनाव मैदान में उतरी है। इसके बाद जब कांग्रेस बंगाल के सागरदिघी विधानसभा का उपचुनाव जीत गई तो दोनों दलों के बीच तल्खी और बढ़ गई।

ममता के बयान पर बंगाल कांग्रेस अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी ने उन पर पलटवार करते हुए यह कह दिया कि प्रधानमंत्री मोदी और उनके बीच राहुल को बदनाम करने के लिए समझौता हुआ है। उनकी मानें तो ममता बनर्जी स्वयं को ईडी और सीबीआइ की कार्रवाई से बचाना चाहती हैं, इसलिए कांग्रेस के खिलाफ हो गई हैं। इस आरोप-प्रत्यारोप से यदि कुछ स्पष्ट है तो यही कि कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस करीब नहीं आने वालीं। ममता की तरह समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव ने भी भाजपा और कांग्रेस से समान दूरी बनाए रखने की बात कही है। इसका मतलब है कि सपा अगला आम चुनाव और चाहे जिसके साथ मिलकर लड़े, कांग्रेस का साथ लेकर नहीं लड़ने वाली। कांग्रेस से दूरी बनाने वाले ममता और अखिलेश यादव ही नहीं हैं। तेलंगाना राष्ट्र समिति के नए रूप भारत राष्ट्र समिति के प्रमुख के. चंद्रशेखर राव भी बिना कांग्रेस के विपक्षी दलों को एकजुट करना चाहते हैं।

कांग्रेस भले ही बार-बार यह कहे कि उसके बिना विपक्षी एकता संभव नहीं, लेकिन सभी विपक्षी दलों को उसका साथ स्वीकार नहीं। अभी पिछले दिनों जब कांग्रेस ने विपक्षी दलों को लेकर ईडी दफ्तर तक मार्च निकालने की ठानी तो कुल 16 दल ही जुटे। एक दर्जन से अधिक विपक्षी दलों ने इस मार्च से दूरी बनाए रखने में भलाई समझी। दूरी बनाने वालों में तृणमूल कांग्रेस तो थी ही, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी यानी एनसीपी भी थी, जो महाराष्ट्र में कांग्रेस की सहयोगी होने के साथ संप्रग की घटक भी है।

विपक्षी दलों के बीच सब कुछ ठीक नहीं और वे एकजुट नहीं, इसका पता तब भी चला था, जब कुछ दलों ने ईडी और सीबीआइ के दुरुपयोग की शिकायत करते हुए एक चिट्ठी लिखी। चिट्ठी लिखने वाले दलों की संख्या केवल आठ थी। इस चिट्ठी पर हस्ताक्षर करने से इन्कार करने वाले दलों में कांग्रेस भी शामिल थी। विपक्षी दलों के बीच तब भी एका का अभाव दिखा था, जब भारत राष्ट्र समिति की नेता के. कविता ने महिला आरक्षण को लेकर दिल्ली में धरना दिया। इस धरने में 17 दल शामिल हुए और जिन दलों ने उससे दूरी बनाई उनमें कांग्रेस भी थी। यह सब घटनाक्रम कहीं से भी यह इंगित नहीं करता कि विपक्षी दल एकजुट हो रहे हैं और वह भी राहुल गांधी के नेतृत्व में।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)