शिवकांत शर्मा। अमेरिका के विनोदप्रिय लेखक और अभिनेता राडनी डेंजरफील्ड ने एक समय कहा था-20 वर्ष की आयु में व्यक्ति जुझारू और आशावान होता है। वह दुनिया बदलना चाहता है। 70 का होने पर वह बदलना तो चाहता है, पर जान जाता है कि बदल नहीं सकता।’ भारत पर यह कथन पूरी तरह लागू होता है। भारतीय गणतंत्र की उम्र जैसे-जैसे बढ़ रही है, सुधार करना कठिन होता जा रहा है। चुनाव सुधारों पर आगे बढ़ने की जगह पीछे हटने की बातें होने लगी हैं।

बेहतर प्रतिनिधित्व के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व पर विचार की बात तो छोड़ दीजिए, बढ़ती चुनावी हिंसा, धांधली और चुनावों की बढ़ती आवृत्ति को देखते हुए जिस ईवीएम का विकास किया गया, उनकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। मशीनों से मतपत्रीय मतदान की बहुत सी समस्याएं हल हुई थीं, फिर भी सर्वोच्च न्यायालय से मतपत्रों पर लौटने की अपील की जा रही है।

चुनावों को लेकर सबसे बड़ी समस्या प्रचार खर्च और उसके लिए आवश्यक चंदे की है, जिसके समाधान के लिए आजादी के पहले से ही मंथन होता आ रहा है। गांधीजी ने कभी कहा था कि भारत जैसे गरीब देश में यदि उम्मीदवार अपने चुनावों में 60 हजार से एक लाख रुपया खर्च करेंगे तो कैसा घोर अन्याय होगा? गांधीजी की चिंता उनके साथ चली गई।

उनके बाद सार्वजनिक जीवन में फैलते भ्रष्टाचार से चिंतित होकर लाल बहादुर शास्त्री ने गांधीवादी के. संथानम की अध्यक्षता में एक समिति बनाई, जिसने अपनी रिपोर्ट में यह सुझाव भी दिया कि सभी दलों को हर स्रोत से मिले चंदे और उसके खर्च का पूरा हिसाब रखना और उसका ब्योरा आडिट के साथ हर साल देना चाहिए। चुनावी बांडों पर विवाद की पृष्ठभूमि में संथानम समिति की वह सिफारिश और भी प्रासंगिक हो जाती है।

चुनाव प्रचार में होने वाला औसत खर्च विधानसभा के लिए 20 करोड़ और संसदीय चुनाव के लिए 50 करोड़ तक जा पहुंचा है। चुनाव आयोग ने विधानसभा चुनाव के लिए 40 लाख और लोकसभा चुनाव के लिए 95 लाख की अधिकतम सीमा तय की है, जो हास्यास्पद रूप से कम है। इससे चुनाव आयोग भी अवगत है, पर वह प्रचार खर्च की सीमा दलों की सलाह से ही तय करता है। दल चाहें तो इसे बढ़वा कर वास्तविकता के करीब ला सकते हैं, पर वे ऐसा नहीं करते। वे न तो प्रचार खर्च का पूरा हिसाब देना चाहते हैं और न अपने चंदे के सभी स्रोतों का।

प्रचार का ज्यादातर खर्च नकद होता है, जो आम तौर पर काला पैसा होता है। चुनाव प्रेक्षकों का मानना है कि भारत के आम चुनाव अमेरिका के राष्ट्रपति चुनावों से भी अधिक खर्चीले हो चुके हैं, जिनका खर्च एक लाख करोड़ रुपये से भी ऊपर चला गया है। भारत में आम चुनाव विज्ञापनों, जलसे-जुलूसों और पोस्टरबाजी की होड़ के अलावा वोट खरीदने के लिए बांटे जाने वाले उपहारों और नकदी की वजह से खर्चीले हो रहे हैं। लोग पैसा लेकर वोट भले अपनी मर्जी से देते हों, पर वे यह भूल जाते हैं कि उन्हें मिलने वाला पैसा पार्टियों को ठेकों और नियमों में मिलने वाली रियायतों की आशा से दिया जाता है। साफ है कि वोटों के लिए मिलने वाला मामूली पैसा मतदाता को बहुत महंगा पड़ता है। वह सार्वजनिक भ्रष्टाचार की जड़ है।

इंदिरा गांधी सरकार राजनीतिक दलों और नेताओं को विदेशी जासूसी संस्थाओं और दूतावासों से मिलने वाले चंदे को लेकर इतनी चिंतित हुई थी कि केंद्रीय गुप्तचर विभाग से जांच करा डाली। जांच की रपट दबा दी गई, क्योंकि कुछ कांग्रेसी नेताओं ने सोवियत संघ से चंदा लिया था। उसके बाद पिछली सदी के नौवें दशक में उनकी ही सरकार पर अनाज, तेल और रक्षा सौदों के जरिये चंदा उगाहने के आरोप लगे। इसी पृष्ठभूमि में लोकतांत्रिक सुधार संघ नामक संस्था ने चुनावी बांड का सुझाव दिया, जिस पर बरसों के विचार के बाद 2017 में कानून बना।

लोकतांत्रिक सुधार संघ ने कानून का मसौदा देखते ही उसका विरोध शुरू कर दिया, क्योंकि उसे मसौदे के इन चार प्रविधानों पर आपत्ति थी कि बांड खरीदने वालों के नाम गोपनीय रखे गए। दान की सीमा हटा दी गई। कंपनियां ट्रस्ट बनाकर बांड खरीद सकती थीं और बांड पर नाम न होने की वजह से उसका विनिमय भी हो सकता था। इन्हीं चार दोषों को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बांड वाले कानून को असंवैधानिक ठहरा दिया। आखिर इस फैसले के बाद शोर मचाने वाले विपक्ष और मीडिया ने उस समय आवाज क्यों नहीं उठाई, जब उक्त कानून संसद में पेश किया गया था?

लगभग छह साल चली चुनावी बांड योजना का एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि गोपनीयता और सीमा रहित दान जैसे प्रविधान होते हुए भी चुनावी बांडों से मिला लगभग 16.5 हजार करोड़ रुपये का चंदा आम चुनावों में खर्च होने वाले एक लाख करोड़ का छठा हिस्सा भी नहीं है। इसका मतलब यह है कि चुनावी बांडों के बावजूद चंदे की बड़ी रकम नकद या दूसरे माध्यमों से आती रही। देने वाले कारपोरेट, विदेशी, अपराधी कोई भी हो सकते हैं। पार्टियों को केवल 20 हजार से अधिक चंदा देने वालों का रिकार्ड रखना और हर साल टैक्स रिटर्न भरना होता है। चंदा देने वाले को तो टैक्स छूट मिलती है, पर पार्टियों को चंदे पर कोई टैक्स नहीं देना पड़ता। पार्टियां हर साल टैक्स रिटर्न भरने में भी आनाकानी करती हैं, जिसे लेकर विवाद होते हैं।

भारत में राजनीतिक चंदे को पारदर्शी बनाना आसान नहीं है। कॉरपोरेट चंदा बंद कर दलों को सरकारी पैसे से चलाने की बातें व्यावहारिक नहीं, क्योंकि राजनीतिक कड़वाहट और अविश्वास को देखते हुए सरकारी पैसे के बंटवारे पर विवाद होगा। सरकारी अनुदान मिलने पर भी दल यदि अपने प्रचार में काला पैसा खपाएंगे तो उसे कैसे रोकेंगे?

दलों को उनके जनसमर्थन के आधार पर कुछ सरकारी अनुदान देने और बदले में नकद लेनदेन पर पाबंदी लगाने और पारदर्शिता के नियम सख्ती से लागू करने से कुछ फर्क पड़ सकता है। अधिकतर पश्चिमी लोकतंत्रों में इसी तरह की मिश्रित व्यवस्था है। कोई राजनीतिक सुधार जनता की सहमति और सहयोग के बिना नहीं हो सकता। जार्ज बर्नार्ड शा ने ठीक ही कहा है-लोकतंत्र वह साधन है, जो सुनिश्चित करता है कि हमें उससे बेहतर शासक न मिलें, जिसके हम लायक हैं।

(लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक हैं)