संजय गुप्त। राहुल गांधी अब इस पर और अधिक जोर देने में लग गए हैं कि यदि मोदी सरकार फिर सत्ता में आई तो लोकतंत्र खत्म हो जाएगा और संविधान भी नहीं बचेगा। वह अपनी सभाओं में बार-बार कह रहे हैं कि इस बार के लोकसभा चुनाव लोकतंत्र और संविधान बचाने के लिए हैं। लोकतंत्र और संविधान के खतरे में होने के आरोपों पर प्रधानमंत्री ने यह सवाल किया कि क्या जब देश में आपातकाल लगाया गया, तब लोकतंत्र खतरे में नहीं आया था? उन्होंने कांग्रेस से यह प्रश्न भी किया कि यदि संविधान का अनुच्छेद 370 इतना ही अच्छा था तो उसे सारे देश में क्यों नहीं लागू किया गया? कांग्रेस के पास इसका शायद ही कोई जवाब हो।

1947 में जब भारत को आजादी मिली और संविधान सभा गठित हुई तो उसके 299 में से 208 सदस्य कांग्रेस के थे। इस समिति में हिंदू महासभा की ओर से प्रमुख नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी थे, जिन्होंने बाद में जनसंघ की स्थापना की, जिसने 1980 में भाजपा का रूप लिया। संविधान सभा में अनुच्छेद 370 का विरोध कई नेताओं ने किया। इनमें बाबा साहब आंबेडकर भी थे। संविधान में कई संशोधन उसके लागू होने के एक वर्ष के अंदर ही कर दिए गए, जिनमें से एक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सीमित करने वाला भी था। यह विचित्र है कि आज कांग्रेस ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खतरे में होने का सबसे अधिक शोर मचा रही है। जब संविधान में राज्य सरकारों को बर्खास्त करने संबंधी अनुच्छेद 356 शामिल किया गया तो उसका विरोध हुआ। आंबेडकर जी ने इस अपेक्षा से इस अनुच्छेद को संविधान का हिस्सा बनाया कि इसके इस्तेमाल की नौबत कम ही आएगी, लेकिन सब जानते हैं कि नेहरू से लेकर नरसिंह राव के समय 356 का किस तरह मनमाना इस्तेमाल हुआ। पिछले वर्ष फरवरी में प्रधानमंत्री मोदी ने संसद में बताया था कि कांग्रेस की सरकारों ने करीब 90 बार 356 का इस्तेमाल कर राज्य सरकारों को गिराया। इंदिरा गांधी ने तो लगभग 50 बार 356 का इस्तेमाल किया। यह भी किसी से छिपा नहीं कि आपातकाल के दौरान किस तरह संविधान की प्रस्तावना में सेक्युलर और समाजवाद शब्द जोड़े गए।

चूंकि कांग्रेस संविधान खत्म होने का शोर लगातार मचा रही है, इसलिए बीते दिनों प्रधानमंत्री ने यहां तक कह दिया कि यदि आंबेडकर जी आ जाएं तो वह भी संविधान नहीं खत्म कर सकते। मोदी जब पहली बार प्रधानमंत्री बने थे तो उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि उनके लिए सबसे पवित्र किताब संविधान है और देश इससे ही चलेगा। उन्होंने अपने दूसरे कार्यकल की शुरुआत में संसद के केंद्रीय कक्ष में संविधान की प्रति का नमन करके उसके प्रति अपनी निष्ठा प्रकट की थी। यदि भाजपा के नेतृत्व वाला राजग चार सौ से अधिक सीटें पा भी जाए तो भी यह याद रहे कि ऐसा पहली बार नहीं होगा। राजीव गांधी के समय अकेले कांग्रेस ने 414 सीटें जीती थीं। जब कोई दल पूर्ण बहुमत से सत्ता में आता है तो वह अपने एजेंडे को लागू करता ही है। ऐसा कांग्रेस ने भी किया और भाजपा ने भी। यदि मोदी देश को विकसित राष्ट्र बनाने और अपने तीसरे कार्यकाल में बड़े बदलावों की बात कर रहे हैं तो क्या इसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि वह संविधान और लोकतंत्र खत्म करने की तैयारी कर रहे हैं?

राहुल गांधी इस आधार पर भी लोकतंत्र के खतरे में होने और संवैधानिक संस्थाओं को नष्ट किए जाने का आरोप लगाते हैं कि मोदी सरकार अपने लोगों को शीर्ष संस्थाओं में नियुक्त कर रही है। यह काम तो हर सरकार करती है। आखिर कांग्रेस या अन्य कोई दल यह अपेक्षा कैसे कर सकता है कि शीर्ष पदों पर नियुक्ति उसके हिसाब से हो? कांग्रेस की ओर से संवैधानिक संस्थाओं के भगवाकरण का भी आरोप लगाया जा रहा है। क्या जो लोग भारतीयता से ओत-प्रोत हैं और भारतीय संस्कृति की बात करते हैं, उनकी नियुक्ति शीर्ष पदों पर नहीं होनी चाहिए? भ्रष्टाचार में लिप्त नेताओं की गिरफ्तारी या फिर उनके खिलाफ जांच के आधार पर भी यह कहा जा रहा है कि लोकतंत्र खतरे में है। लोकतंत्र को खतरा तो राजनीतिक भ्रष्टाचार से है, न कि भ्रष्ट तत्वों के खिलाफ कार्रवाई से। क्या देश में ऐसा कोई कानून है, जो यह कहता हो कि यदि कोई नेता किसी पद पर है तो उसके खिलाफ कार्रवाई नहीं होनी चाहिए? ध्यान रहे यह कार्रवाई तभी आगे बढ़ती है, जब अदालतें ऐसे नेताओं को राहत नहीं देतीं। विडंबना यह है कि कांग्रेस के साथ मीडिया का एक हिस्सा भी लोकतंत्र-संविधान के खतरे में होने का हौवा खड़ा कर रहा है। यह हौवा खड़ा कर न्यायपालिका को प्रभावित करने की भी कोशिश की जा रही है और इसीलिए कुछ दिनों पहले 600 वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश को पत्र लिखकर यह कहा कि एक खास समूह निहित स्वार्थों के चलते न्यायपालिका पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहा है।

अब तक संविधान में सौ से अधिक संशोधन किए जा चुके हैं। यह स्पष्ट है कि देश की आवश्यकतानुसार आगे भी होंगे। कांग्रेस को यह समझ आए तो अच्छा कि वह संविधान और लोकतंत्र के खत्म होने का जुमला उछालकर अपने पक्ष में कोई ठोस नैरेटिव नहीं खड़ा कर पा रही है। चूंकि वह जनता को लुभाने वाला नैरेटिव खड़ा करने में नाकाम है, इसलिए कांग्रेस नेताओं के पार्टी छोड़ने का सिलसिला थम नहीं रहा है। जो कांग्रेस नेता बचे हुए हैं, उनकी मजबूरी है कि वे राहुल गांधी के आरोपों को दोहराएं। यदि कांग्रेस कमजोर हो रही है तो इसका यह अर्थ नहीं कि देश में लोकतंत्र कमजोर हो रहा है। कांग्रेस की कमजोरी का एक कारण क्षेत्रीय दलों से समझौते के नाम पर अपनी राजनीतिक जमीन छोड़ना है। अधिकांश क्षेत्रीय दल या तो कांग्रेस से टूट कर निकले हैं या फिर कांग्रेस विरोध की राजनीति से उपजे हैं। आज उनमें से अनेक उसके साथ अवश्य हैं, लेकिन वे उसकी ही जड़ें काट रहे हैं। अधिकांश क्षेत्रीय दल कांग्रेस की तरह परिवारवादी हैं और वे अपने दल को निजी जागीर की तरह चला रहे हैं। ऐसे परिवारवादी दल तो लोकतांत्रिक और संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ ही हैं।

(लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं)