क्षुद्रग्रहों की बमबारी और ज्वालामुखी विस्फोटों ने खत्म किए डायनासोर के अस्तित्व
लंदन के शोधकर्ताओं ने बताया कि जलवायु परिवर्तन का डायनासोरों पर नहीं पड़ा था प्रभाव क्षुद्रग्रहों की बमबारी और ज्वालामुखी विस्फोटों ने उनका अस्तित्व मिटाया।
लंदन, प्रेट्र। लंबे समय तक यह माना जाता रहा है कि जलवायु परिवर्तन पृथ्वी से डायनासोरों के विलुप्त होने की प्रमुख वजह रहा है। अब वैज्ञानिकों ने बताया है कि यह सही वजह नहीं है। डायनासोर लंबे समय तक जलवायु परिवर्तन से अप्रभावी थे और उनकी प्रजाति बढ़ रही थी, लेकिन 66 लाख साल पहले अचानक हुई क्षुद्रग्रहों की बमबारी ने उनका अस्तित्व खत्म कर दिया। वैज्ञानिक इस बात पर बहुत हद तक सहमत हैं कि केवल क्षुद्रग्रह ही नहीं पृथ्वी में भी अचानक ज्वालामुखी विस्फोटों ने केटेशियस काल के अंत में पृथ्वी से डायनासोरों को मिटा दिया। नेचर कम्युनिकेशंस जर्नल में प्रकाशित अध्ययन में बताया गया कि हालांकि, यह बहस का विषय रहा है कि क्षुद्रग्रहों की बमबारी से पहले डायनासोरों की प्रजाति बढ़ रही थी या लंबे समय से चल रहे जलवायु परिवर्तन के कारण उनकी संख्या में गिरावट आई थी।
पिछले के अध्ययनों में वैज्ञानिकों ने जीवाश्मों का अध्ययन कर और गणितीय पूर्वानुमान लगाकर बताया था कि क्षुद्रग्रहों की बमबारी से पहले ही डायनासोरों की प्रजातियों और संख्या में कमी आने लगी थी, लेकिन लंदन के इंपीरियल कॉलेज, यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ लंदन, यूनिवर्सिटी ऑफ ब्रिस्टल के शोधकर्ताओं ने वर्तमान के विश्लेषण में बताया कि जलवायु परिवर्तन का उन पर कोई प्रभाव नहीं था।
इंपीरियल कॉलेज के शोधकर्ता एलेसेंड्रो चियारेंजा ने बताया कि क्रेटशियस काल से पहले डायनासोर के विलुप्त होने की संभावना नहीं थी। इस काल के अंत में पृथ्वी पर हुई क्षुद्रग्रहों की बमबारी उनकी समाप्ति का कारण बनी। बताया कि जलवायु परिवर्तन से हुए प्रभावों से निपटने के लिए डायनासोर सक्षम थे। इससे उनकी संख्या कम नहीं हुई थी। अध्ययन में बताया गया कि जीवाश्म के लिए बदलती परिस्थितियों से मतलब है कि पिछले अध्ययनों में केटेशियस काल के अंत में डायनासोरों की प्रजातियों के संख्या को कम आंका है।
पूर्व के अध्ययनों में सही अनुमान नहीं लगाया गया
शोधकर्ताओं की टीम ने अपना अध्ययन उत्तरी अमेरिका में केंद्रित किया है जहां पर टी-रेक्स और ट्राइसेराटॉप्स के अवशेष सरंक्षित हैं। इस अवधि में इस महाद्वीप को समुद्र द्वारा दो भागों में विभाजित किया गया था। पश्चिम के हिस्से में रॉकी पर्वत शृंखला का निर्माण हुआ जिसकी तलछट में डायनासोरों के बहुत से जीवाश्म अपने आप सहेजे जा सके। वहीं, पूर्वी हिस्सा जीवाश्मों को सहेजने के लिए अनुकूल नहीं था। इसका मतलब यह है कि पश्चिमी हिस्से में कहीं ज्यादा जीवाश्म पाए जाते हैं। पूर्वी हिस्से में जीवाश्मों के न मिलने से अनुमान लगाया जाता है कि उनकी संख्या घट रही थी। वैज्ञानिकों ने मॉडल के माध्यम से समझाया कि डायनासोरों की संख्या घट नहीं रही थी। बस स्थितियां उनके जीवाश्म संरक्षित रखने के लिए अनुकूल नहीं थीं।