Move to Jagran APP

गजब! नवाज को उस मामले में सजा मिली जिसमें उनका नाम भी शामिल नहीं था

हाल ही में पाकिस्तान के एक समाचार पत्र ने अपने संपादकीय में लिखा-यह कैसा चुनाव? जब चुनाव बिल्कुल करीब हों और चुनाव संबंधी आजादी ही खत्म कर दी जाए तब वास्तव में चुनाव का मकसद ही खत्‍म हो जाता है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Thu, 19 Jul 2018 12:27 PM (IST)Updated: Thu, 19 Jul 2018 01:28 PM (IST)
गजब! नवाज को उस मामले में सजा मिली जिसमें उनका नाम भी शामिल नहीं था
गजब! नवाज को उस मामले में सजा मिली जिसमें उनका नाम भी शामिल नहीं था

(डॉ. रहीस सिंह)। हाल ही में पाकिस्तान के एक अखबार ने अपने संपादकीय में लिखा-ये कैसा चुनाव? जब चुनाव बिल्कुल करीब हों और चुनाव संबंधी आजादी ही खत्म कर दी जाए या करने की कोशिश की जाए और सियासी दल अवाम से ठीक-ठाक रूबरू भी न हो सकें, न अपनी बात ढंग से उसके सामने रख सकें, न ही वे इस हैसियत में हों कि अवाम को भरोसा दिला सकें कि यदि उनकी सरकार बनी तो वे उसके लिए क्या-क्या कर सकेंगे, तब वास्तव में चुनाव का असल मकसद ही समाप्त हो जाता है। ऐसे में दुनिया के प्रबुद्ध वर्ग की जुबान पर वही सवाल होता है जो पाकिस्तान के उस अखबार ने उठाया। दरअसल इस वक्त ऐसा लग रहा है कि पाकिस्तानी न्यायपालिका सेना के इशारों पर कुछ नेताओं को सलाखों के पीछे पहुंचा रही है और सियासी दलों की चुनावी स्वतंत्रता छीन रही है। क्या तब भी यह स्वीकार किया जा सकता है कि पाकिस्तान के चुनाव वास्तविक लोकतंत्र का आईना साबित होंगे? यहां पर कुछ अहम सवाल और भी हैं।

prime article banner

पाक चुनाव  को लेकर कुछ सवाल

पहला, क्या पाकिस्तान में 25 जुलाई को केवल सियासी जमातों का इम्तेहान होना है या फिर पाकिस्तानी लोकतंत्र का भी? दूसरा, वहां जो सरकार बनेगी, वह वास्तव में स्वतंत्र रूप से कार्य करेगी या फिर गाइडेड गवर्मेट होगी, यानी वास्तविक शासन रावलपिंडी से चलेगा, जबकि इस्लामाबाद की सरकार सरकार की छायामात्र होगी? तीसरा, क्या पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ अपनी हैसियत बचाने के साथ-साथ लोकतंत्र के लिए भी लड़ाई लड़ रहे हैं? आखिर इस लड़ाई के परिणाम क्या होंगे? पाकिस्तान में इस समय ‘डीप स्टेट’ (पाकिस्तानी सेना व खुफिया एजेंसी आइएसआइ) न्यायपालिका को आगे करके एक गेम खेल रहा है। यह गेम पाकिस्तान के लिए नया नहीं है, फिर भी इस वक्त यह विचारणीय तो है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र बचेगा या नहीं? यदि लोकतंत्र बचाना है तो इसके लिए लड़ाई कौन लड़ेगा? दुनिया माने या न माने, लेकिन सच यही है कि पाकिस्तान की सेना और आइएसआइ नवाज शरीफ को सलाखों के पीछे धकेल किसी प्यादे को इस्लामाबाद में प्रतिष्ठित करना चाहती है, ताकि रावलपिंडी से शासन आसानी से चलाया जा सके।

टेस्ट ट्यूब बेबी ऑफ जनरल जिया

ध्यान रहे कि एक समय था जब नवाज शरीफ टेस्ट ट्यूब बेबी ऑफ जनरल जिया कहे जाते थे, क्योंकि सेना तब अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए जुल्फिकार अली भुट्टो को सियासी रूप से समाप्त करना चाहती थी, इसलिए उन्हें काउंटर करने के लिए नवाज शरीफ को आगे बढ़ाया। सेना अपने मिशन में सफल भी रही। अब समय बदल गया है, मगर पुराना इतिहास दोहराया जा रहा है। फर्क इतना है कि अब सेना के लिए नवाज शरीफ महत्वपूर्ण नहीं रह गए, इसलिए वह उनका सियासी करियर समाप्त करने हेतु इमरान खान को ले आई। हालांकि नवाज शरीफ के स्वदेश लौटने से पहले तक इमरान खान और जनरलों को बेहद खुशनुमा तस्वीर दिख रही थी, लेकिन अब स्थितियां बदल गई हैं और स्थापित सियासी समीकरण अब विपरीतमूलक दिख रहे हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या नवाज शरीफ वास्तव में उतने दोषी हैं, जितना कि न्यायपालिका उनके साथ सख्ती से पेश आ रही है? यदि नहीं तो आखिर इसकी वजह क्या है? दूसरा यह कि क्या नवाज शरीफ अपनी निजी लड़ाई को लोकतंत्र के लिए लड़ी जाने वाली लड़ाई में बदल पाएंगे और उसका लाभ उठाने में सफल हो पाएंगे? यदि नहीं तो उनका सियासी करियर समाप्त हो जाएगा और यदि हां तो वे लोकतंत्र के मसीहा बनेंगे।

न्‍यापालिका का मकसद

गौरतलब है कि पाकिस्तान की न्यायपालिका ने जब पनामा गेट मामले को रीओपन करने का निर्णय लिया, जो पहले खारिज हो चुका था, तभी साफ हो गया था कि इस मामले में मुख्य मकसद न्याय करना नहीं, बल्कि नवाज शरीफ को फंदे में लपेटना है। इस मामले की सुनवाई पूरी किए बिना ही कोर्ट ने नवाज शरीफ को न केवल प्रधानमंत्री पद के अयोग्य करार दिया था, बल्कि पार्टी अध्यक्ष पद के लिए भी अयोग्य मान लिया। फिर नवाज शरीफ को उस मामले में सजा सुनाई गई, जिसमें उनका नाम ही शामिल नहीं था। ध्यान रहे कि इस मामले में उनके बच्चों के नाम हैं, ना कि खुद नवाज शरीफ का। एक बात और भ्रष्टाचार-निरोधक अदालत के जिस जज ने नवाज शरीफ को यह सजा सुनाई, उसी अदालत के उसी जज ने आसिफ अली जरदारी के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले (रेफरेंस) में जरदारी को यह कहकर बाइज्जत बरी कर दिया कि उनके खिलाफ कोई दस्तावेजी सुबूत नहीं हैं। यही स्थिति तो नवाज शरीफ के संदर्भ में भी थी, फिर अदालत ने वकीलों के तर्को को नजरअंदाज करते हुए उन्हें 10 साल की सजा क्यों सुनाई?

कैसी है नवाज की लड़ाई

दरअसल पाकिस्तान में जो हो रहा है, उसे दो तरह से देखने की जरूरत है। पहला यह कि सेना पाकिस्तान में कैसा लोकतंत्र चाहती है? दूसरा, नवाज शरीफ जो लड़ाई लड़ रहे हैं, वह कितनी मजबूत है? पहले प्रश्न का उत्तर तो पाकिस्तान के इतिहास में ही मिल जाएगा, जिसे आप इस्कंदर मिर्जा से जनरल परवेज मुशर्रफ तक के कार्यकाल में देख सकते हैं। रही बात दूसरे प्रश्न की तो नवाज शरीफ अब तक अपनी निजी सियासी लड़ाई लड़ते दिख रहे थे, लेकिन अब वे पाकिस्तान के लोकतंत्र के अस्तित्व की लड़ाई भी लड़ते दिख रहे हैं, क्योंकि अब पाकिस्तान की लोकतांत्रिक ताकतें उनके इर्द-गिर्द सिमटती नजर आ रही हैं। एक बात और पाकिस्तान में एक समर्थ पूंजीपति वर्ग भी है। यह वर्ग भी सियासी रूप से नवाज शरीफ के पीछे है। यह वर्ग सेना की तानाशाही के विरुद्ध है और उदार लोकतंत्र का पक्षधर व भारत से अच्छे संबंधों का पैरोकार है।

बेहद दिलचस्प लड़ाई 

चूंकि नवाज शरीफ एक पूंजीपति भी हैं, इसलिए उन्हें इस वर्ग का नेतृत्व करने का अवसर प्राप्त हो गया। यानी पाकिस्तान का पूंजीपति वर्ग फौजी हुक्मरान के खिलाफ नवाज की लड़ाई में उनके साथ है। अब इस लड़ाई में एक तरफ नवाज, लोकतंत्रवादी और पूंजीपति वर्ग हैं और दूसरी तरफ सेना तथा न्यायपालिका, जिसके वफादार सिपहसालार इस वक्त इमरान खान हैं। इसलिए अब यह लड़ाई बेहद दिलचस्प बन गई है। अब जो भी हो, नवाज के बगैर पाकिस्तान की राजनीति के मायने होंगे सेना के इशारों पर चलने वाला लोकतंत्र और चुनाव में नवाज के जीतने का मतलब होगा सेना के खिलाफ एक प्रभावशाली राजनीतिक संघर्ष। अब पाकिस्तान का अवाम इसे किस तरह देखता है और किसका पक्ष लेता है, अंतिम नतीजे इसी पर निर्भर करेंगे।

(लेखक विदेश संबंधी मामलों के जानकार हैं)


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.
OK