गवाह हैं आंकड़े, अपनी जरूरत के हिसाब से पाक को मदद करता है अमेरिका
इसमें शक नहीं कि पाकिस्तान का अमेरिका सबसे बड़ा मददगार रहा है। लेकिन समय समय पर अमेरिकी राष्ट्रपति अपने ऐतराजों को भी दर्ज कराते रहे हैं।
नई दिल्ली [ स्पेशल डेस्क ] । आतंकवाद के खिलाफ पाकिस्तान की भूमिका पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा कि पिछले 15 वर्षों से मुर्ख बनाने की कोशिश हुई है। अमेरिकी मदद का पाकिस्तान ने बेजा इस्तेमाल किया है। लेकिन अब ऐसा नहीं होगा। ट्रंप के इस बयान के बाद पाकिस्तान बौखला गया और वहां के विदेश मंत्री ख्वाजा आसिफ ने कहा कि अमेरिका जिस मदद की बात करता है दरअसल वो अफगानिस्तान में आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में पाकिस्तानी मदद का भुगतान है। पाकिस्तान और अमेरिका में ट्वीट वार के बाद ये जानना दिलचस्प है कि क्या अमेरिका हमेशा से पाकिस्तान का मददगार रहा या समय समय पर उसके नजरिए में बदलाव भी आता रहा है।
पाकिस्तान, आतंकवाद और अमेरिकी मदद
अमेरिका और पाकिस्तान के बीच आर्थिक संबंधों में नरमी और गरमी समय के साथ बदलता रहा है। 1951 और 2011 के बीच पाकिस्तान ने अमेरिका से 67 बिलियन डॉलर की सहायता राशि प्राप्त की। लेकिन 1965 में पाकिस्तान और भारत में तनाव शुरु होने के बाद अमेरिका ने सैन्य सहायता पर रोक लगा दी थी। पाकिस्तान पर प्रतिबंध अगले 15 सालों तक जारी रहा।
1979 में सीआईए ने पाकिस्तान के परमाणु संवर्धन कार्यक्रम की पुष्टि की जिसके बाद राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने खाद्य सहायता को छोड़कर सभी सहायता निलंबित कर दी। 1980 के शुरुआत में अफगानिस्तान पर सोवियत आक्रमण के बाद एक बार फिर से पाकिस्तान को दी जाने वाली सैन्य सहायता की राशि बढ़ा दी गई।राष्ट्रपति बुश यह प्रमाणित करने में विफल रहे कि पाकिस्तान के पास परमाणु हथियार नहीं हैं, तब 1990 के दशक के दौरान भी अधिक से अधिक सहायता राशि पर रोक लगा दी गई थी।1993 में अमेरिकी सहायता मिशन पर 8 सालों के लिए रोक लगा दी गई। 1998 में परमाणु परीक्षणों के बाद सहायता राशि में फिर से कटौती कर दी गई।
अगर 1951 से 2000 के कालखंड को देखें तो ये बात स्पष्ट है कि 1980 का साल पाकिस्तान के लिए अमेरिकी मदद महत्वपूर्ण है। दरअसल अफगानिस्तान में राजनीतिक संक्रमण का दौर चल रहा था। दुनिया दो खेमों में बंटी हुई थी। एक खेमे का नेतृत्व रूस कर रहा था। अफगानिस्तान में अपने दबदबे को कायम रखने के लिए रूस वहां के राष्ट्रपति नजीबुद्दौला का समर्थन कर रहा था। अमेरिका को डर था कि रूस अफगानिस्तान के और दक्षिण यानि पाकिस्तान तक अपना प्रभाव बढ़ा सकता है और उस तरह के हालात दक्षिण एशिया में अमेरिका के लिए बेहतर नहीं होगा। लिहाजा अमेरिकी प्रशासन ने पाकिस्तान के लिए अपने खजाने को खोल दिया।
लेकिन सोवियत संघ के अफगानिस्तान से जाने के बाद हालात बदल चुके थे। अफगानिस्तान में कट्टरपंथी ताकतें सिर उठाने लगी थीं और वहां की सत्ता पर काबिज होने की कोशिश कर रही थीं। ये सच है कि अब रूस से अमेरिका को किसी तरह का डर नहीं था। लेकिन एक अलग तरह का खतरा भी आहट दे रही थी। 90 के दशक में उदारीकरण के बाद अमेरिका के साथ भारत के रिश्ते बेहतर हो रहे थे। भारत 1998 के परमाणु परीक्षण के जरिए अपनी ताकत को दुनिया के सामने दिखाया। अमेरिकी इमदाद पर पल रहे पाकिस्तान को ये सबकुछ रास नहीं आया और उसने भी परमाणु परीक्षण किया। अमेरिका को ये सब नागवार लगा और उसने पाकिस्तान को दी जाने वाली मदद रोक दी।
9/11 पाकिस्तान के लिए वॉटरशेड
लेकिन 9/11 के आतंकी हमलों के बाद हालात बदले। तालिबान और अलकायदा के खात्मे के लिए अमेरिका ने कसम खाई। अफगानिस्तान में अमेरिका को अपनी योजना कामयाब बनाने के लिए एक ऐसे सहयोगी की तलाश थी जो उसकी सामरिक जरूरतों को पूरी कर सके। इन सब परिस्थितियों में अमेरिका के लिए पाकिस्तान एक बेहतर विकल्प था। आतंकवाद पर काबू पाने के लिए पाकिस्तान को दी जाने वाली सहायता राशि काफी हद तक बढ़ा दी गई। 2004 में अमेरिका ने 1 अरब डॉलर की ऋण राहत की अवधि बढ़ा दी।
2009 में केरी-लुगर-बर्मन एक्ट जिसे पाकिस्तान के साथ बेहतर भागीदारी एक्ट 2009 के नाम से भी जाना जाता है, पारित किया गया। कांग्रेस ने वित्त वर्ष 2010 से वित्त वर्ष 2014 तक के पांच वर्षों के दरम्यान आर्थिक सहायता तीन गुना बढ़ाकर 7.5 अरब डॉलर करने का फैसला किया। 2002 से 2009 के बीच पाकिस्तान को दिया गया अमेरिकी विदेशी सहयोग का केवल 30 फीसदी ही आर्थिक कारणों से जुड़ा था। बाकी 70 फीसदी फंड सुरक्षा कारणों के लिए था। 2011 में कुल फंड का 3.4 फीसदी अमेरिकी सहायता प्राप्त करने वाला पाकिस्तान चौथा सबसे बड़ा देश बन गया था।
1951 से 2017 तक के पाकिस्तान-अमेरिकी संबंधों को देखें तो वो बहुत हद तक अमेरिका की जरूरतों के हिसाब से नियंत्रित होता रहा। पाकिस्तान सिर्फ कठपुतली की भूमिका में था। अमेरिका और पाकिस्तान के बीच संबंधों में खटास ओबामा प्रशासन के दौरान ही शुरू हो चुका था जब अफगानिस्तान में हक्कानी नेटवर्क की खबरें सामने आने लगी। हक्कानी नेटवर्क के खात्मे के नाम पर पाकिस्तान ने अमेरिका से मदद ली। लेकिन कनाडाई-अमेरिकी जोड़ी को हक्कानी नेटवर्क द्वारा बंधक बनाए जाने की पुख्ता जानकारी के बाद ट्रंप प्रशासन की त्यौरी चढ़ गई।
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