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सेना की सबसे बड़ी चिंता, सजा के बाद भी कमजोर नहीं हुई नवाज की जनता पर पकड़

सेना जानती है कि अपदस्थ होने के बाद भी नवाज की जनता में पकड़ कमजोर नहीं हुई है। अगर आम चुनाव में उनकी पार्टी अच्छा प्रदर्शन कर जाती है तो फिर उन्हें किनारे लगाना मुश्किल होगा।

By Kamal VermaEdited By: Published: Thu, 19 Jul 2018 01:00 PM (IST)Updated: Fri, 20 Jul 2018 07:46 AM (IST)
सेना की सबसे बड़ी चिंता, सजा के बाद भी कमजोर नहीं हुई नवाज की जनता पर पकड़
सेना की सबसे बड़ी चिंता, सजा के बाद भी कमजोर नहीं हुई नवाज की जनता पर पकड़

(अरविंद जयतिलक)। पाकिस्तान की राष्ट्रीय जवाबदेही ब्यूरो (एनएबी) अदालत द्वारा पनामा पेपर मामले में प्रधानमंत्री की कुर्सी गंवाने वाले नवाज शरीफ और उनकी बेटी मरयम को 10 और 7 साल की सजा से पाकिस्तान की सियासत में भूचाल आ गया है। न सिर्फ नवाज शरीफ और उनके परिवार की मुश्किलें बढ़ गई हैं, बल्कि पाकिस्तान में यह सवाल तैरने लगा है कि क्या राष्ट्रीय जवाबदेही ब्यूरो का यह फैसला पाकिस्तान की सेना के इशारे पर है? यह आशंका इसलिए कि पाकिस्तान में यह चर्चा जोरों पर है कि सेना की मंशा और रणनीति इमरान खान को प्रधानमंत्री निर्वाचित कराने की है और इसके लिए उसने चुनाव से पहले ही नवाज शरीफ और उनके परिवार को कानूनी शिकंजे में फंसा दिया है।

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जनता पर नवाज की पकड़ बरकरार 
चूंकि सेना अवगत है कि प्रधानमंत्री पद से अपदस्थ होने के बाद भी नवाज की जनता में पकड़ कमजोर नहीं हुई है और अगर 25 जुलाई को होने वाले आम चुनाव में उनकी पार्टी अच्छा प्रदर्शन कर जाती है तो फिर उन्हें किनारे लगाना मुश्किल होगा। ऐसे में सेना ने चुनाव से पहले ही उन्हें सजा दिलाकर अपना दांव चल दी है। अब सवाल उठना लाजिमी है कि क्या पाकिस्तान में एक बार फिर लोकतंत्र को बूटों तले रौंदने की तैयारी हो चुकी है? क्या सेना की मंशा ऐसे प्रधानमंत्री को निर्वाचित कराना है जो उसके हाथ की कठपुतली हो? ये सवाल इसलिए कि अपने गठन के सत्तर साल के इतिहास में पाकिस्तान की सेना लोकतंत्र विरोधी हरकत करती रही है।

समस्‍याओं में घिरा पाक 
गौर करें तो प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को ऐसे वक्त में सजा सुनाई गई है जब पाकिस्तान कई तरह की समस्याओं के जंजाल में है और उसकी अर्थव्यवस्था पानी मांग रही है। आतंकवाद और अराजकता के कारण वहां उद्योग-धंधों के पहिये थम गए हैं और नागरिकों की क्रयशक्ति और प्रतिव्यक्ति आय में जबरदस्त गिरावट आई है। पाकिस्तान विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष से मिलने वाली मदद पर निर्भर होकर रह गया है। आंकड़े बताते हैं कि बीते साल में तकरीबन 10 लाख युवाओं ने देश छोड़ा है। पाकिस्तान के केंद्रीय योजना व विकास मंत्रलय के मुताबिक देश में गरीबों का अनुपात बढ़कर 30 प्रतिशत के पार पहुंच चुका है। उधर अमेरिका ने उसे दी जाने वाली 2,250 करोड़ रुपये की सहायता पर पहले ही रोक लगा रखी है।

चुनाव के बाद लोकतंत्र को मिलेगी मजबूती
इस बात की भी कोई गारंटी नहीं कि 25 जुलाई को होने जा रहे आमचुनाव के बाद पाकिस्तान में लोकतंत्र को मजबूती मिलेगी। अगर किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला जिसकी संभावना भी प्रबल है, ऐसे में पाकिस्तान का होने वाला प्रधानमंत्री सेना की हाथ की कठपुतली ही होगा। अगर ऐसा हुआ तो यह भारत के लिए ठीक नहीं होगा। इसलिए कि पाकिस्तान में जब भी लोकतंत्र कमजोर हुआ है भारत के लिए खतरा बढ़ा है। अगर पाकिस्तान का भावी प्रधानमंत्री सेना की हाथों की कठपुतली होगा तो फिर भारत-पाकिस्तान के बीच रिश्ते का बर्फ पिघलना मुश्किल होगा। इसलिए कि पाकिस्तानी सेना के अलावा पाकिस्तान पोषित आतंकी संगठन जिसे वहां की खुफिया एजेंसी आइएसआइ द्वारा खुलेआम संरक्षण दिया जाता है, वे कभी नहीं चाहेंगे कि भारत और पाकिस्तान के बीच रिश्ते सुधरे।

पाकिस्‍तान बिगड़ता मिजाज 
वैसे भी वे पहले से ही खार खाए हुए हैं कि भारत के इशारे पर ही अमेरिका ने जमात उद दावा के सरगना हाफिज सईद और जैश ए मुहम्मद जैसे आतंकियों पर नकेल कसा है और पाकिस्तान को दिए जाने वाले अमेरिकी आर्थिक मदद में कटौती हुई है। बहरहाल भारत को पाकिस्तान के बदलते-बिगड़ते मिजाज पर सतर्क दृष्टि रखनी होगी। इसलिए कि पाकिस्तान एक परमाणु संपन्न देश है और उसके पास 200 से अधिक परमाणु बम और भयंकर आयुधों का जखीरा है। अगर कहीं पाकिस्तान की सेना जम्हूरियत को कमजोर कर अपने मनमाफिक प्रधानमंत्री बनवाने में सफल रही तो यह तय है कि कट्टरवादी ताकतें और आतंकी संगठन पाकिस्तानी सेना को भारत के खिलाफ उकसाने से बाज नहीं आएंगे।

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