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अफगानिस्‍तान में रूस की हार और काबुल पर आतंकियों के कब्‍जे से खुले आतंकियों के लिए कश्‍मीर के दरवाजे

अफगानिस्‍तान में रूस की हार के बाद न सिर्फ अफगानिस्‍तान में सबसे बुरा दौर शुरू हुआ बल्कि इसके बाद कश्‍मीर में भी आतंकियों ने दस्‍तक देनी शुरू कर दी थी।

By Kamal VermaEdited By: Published: Thu, 25 Apr 2019 06:06 AM (IST)Updated: Thu, 25 Apr 2019 06:07 AM (IST)
अफगानिस्‍तान में रूस की हार और काबुल पर आतंकियों के कब्‍जे से खुले आतंकियों के लिए कश्‍मीर के दरवाजे
अफगानिस्‍तान में रूस की हार और काबुल पर आतंकियों के कब्‍जे से खुले आतंकियों के लिए कश्‍मीर के दरवाजे

नई दिल्‍ली [जागरण स्‍पेशल]। अफगानिस्‍तान में युद्ध की शुरुआत सन 1978 में उस वक्‍त हुई जब सोवियत संघ अफगानिस्‍तान में हमले करना शुरू किया। सोवियत संघ की सेना ने अफगानिस्‍तान के कई इलाकों पर कब्‍जा कर लिया। इसके बाद अमेरिका ने अफगानिस्‍तान से सोवियत संघ को बाहर करने के लिए पाकिस्‍तान को मोहरा बनाया। लेकिन क्‍योंकि पाकिस्तान की सरकार अफगानिस्‍तान से सोवियत सेना को खदेड़ने के लिए सीधे रूप में सोवियत सेना से टक्कर नहीं लेना चाहती थी इसलिए उसने तालिबान नामक एक ऐसे संगठन का गठन किया। इसमें पाकिस्तानी सेना के कई अधिकारी और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को जेहादी शिक्षा देकर भर्ती किया गया।

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इन्हे अमेरिका ने जहां वित्‍तीय मदद और हथियार मुहैया करवाए वहीं चीन की सेना से इन्‍हें ट्रेनिंग दिलवाई गई। तालिबान की मदद को अरब के कई अमीर देश जैसे सऊदी अरब, इराक आदि ने प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से पैसे और मुजाहिदीन मुहैया कराए। इस्‍लामिक देशों में प्रचार किया गया कि सोवियत संघ ने अफगानिस्‍तान पर नहीं बल्कि इस्‍लाम पर हमला किया है। लिहाजा कई देश सोवियत संघ के खिलाफ इस जंग में शामिल होने पर भी राजी हो गए।

अमेरिकी मदद की बदौलत अफगानिस्‍तान में तालिबान ने विकराल रूप हासिल कर लिया और वहां पर सोवियत संघ की करारी हार भी हुई। यही वजह थी कि सोवियत संघ की सेना को वापस बुलाने का फैसला लिया गया। यह फैसला जहां सोवियत संघ के लिए काफी घातक साबित हुआ है वहीं अफगानिस्‍तान समेत पूरे क्षेत्र के लिए भी घातक साबित हुआ। अमेरिका के दम पर सोवियत संघ को हराने वाले तालिबान ने धीरे-धीरे अफगानिस्‍तान में अपने पैर फैलाने शुरू कर दिए।

सोवियत सेना की इस तगड़ी हार के कारण अफगानिस्‍तान में तालिबान और अल कायदा के मुजाहिदीनों का गर्म जोशी से स्वागत और सम्मान किया गया। इसमें मुख्यत तालिबान प्रमुख मुल्लाह ओमर और अल कायदा प्रमुख शेख ओसामा बिन लादेन का सम्मान किया गया। ओसामा सऊदी के एक बड़े बिल्डर का बेटा होने के कारण बेहिसाब दौलत का इस्तेमाल कर रहा था। युद्ध के चलते अफगानिस्‍तान में सरकार गिर गई थी जिसके कारण दोबारा चुनाव किये जाने थे। लेकिन तालिबान ने देश कि सत्ता अपने हाथों में लेते हुए पूरे देश में एक इस्लामी धार्मिक कानून शरीयत लागू कर दिया जिसे सऊदी सरकार ने समर्थन भी दिया।

80 के दशक के अंत में सोवियत संघ के अफानिस्‍तान से जाने के बाद वहां कई गुटों में आपसी संघर्ष शुरु हो गया था और मुजाहिद्दीनों से भी लोग परेशान थे। ऐसे हालात में जब तालेबान का उदय हुआ था तो अफगान लोगों ने उसका स्वागत किया था। शुरुआती दौर में तालिबान की लोकप्रियता इसलिए थी क्योंकि उन्होंने भ्रष्ट्राचर पर लगाम कसी, अव्यवस्था पर अंकुश लगाया और अपने नियंत्रण में आने वाले इलाकों को सुरक्षित बनाया ताकि लोग व्यवसाय कर सकें। दक्षिण-पश्चिम अफगानिस्‍तान से तालिबान ने जल्द ही अपना प्रभाव बढ़ाया। सितंबर 1995 में तालेबान ने ईरान सीमा से लगे हेरात प्रांत पर कब्ज़ा कर लिया।

इसके एक साल बाद 25 अप्रैल को तालिबान ने बुरहानुद्दीन रब्बानी सरकार को सत्ता से हटाकर अफगानिस्‍तान की राजधानी काबुल पर कब्‍जा कर लिया। 1998 आते-आते लगभग 90 फीसद अफगानिसतान पर तालिबान का नियंत्रण हो गया था। इसके बाद न सिर्फ अफगानिस्‍तान में सबसे बुरा दौर शुरू हुआ बल्कि इसके बाद कश्‍मीर में भी आतंकियों ने दस्‍तक देनी शुरू कर दी थी। 1992 के बाद ही जम्‍मू कश्‍मीर में आतंकवाद तेजी से पनपा था। इसको हवा देने वालों में पाकिस्‍तान था, जिसने तालिबान को खड़ा किया था और उसको आतंकी मुहैया करवाए थे।

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