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ग्लेशियरों पर दिख रहा ग्लोबल वार्मिंग का सबसे अधिक असर, वैज्ञानिकों ने जताई चिंता

बल वार्मिंग का असर आर्कटिक इलाके में साफ दिख रहा है। यहां ग्लोबल वार्मिंग का इतना असर है कि बर्फ की चट्टानें पिघलती जा रही हैं और यहां के तापमान में भी बढ़ोतरी हो रही है। पहले इस हिमालयी क्षेत्र में काफी ठंडक होती थी।

By Edited By: Published: Tue, 15 Sep 2020 02:04 PM (IST)Updated: Sun, 07 Feb 2021 05:58 PM (IST)
ग्लेशियरों पर दिख रहा ग्लोबल वार्मिंग का सबसे अधिक असर, वैज्ञानिकों ने जताई चिंता
ग्लेशियरों के लगातार पिघलते जाने से वैज्ञानिकों ने खासी चिंता जताई है।

नई दिल्ली, न्यूयॉर्क टाइम्स न्यूज सर्विस। ग्लोबल वार्मिंग का असर आर्कटिक इलाके में साफ दिख रहा है। यहां ग्लोबल वार्मिंग का इतना असर है कि बर्फ की चट्टानें पिघलती जा रही हैं और यहां के तापमान में भी बढ़ोतरी हो रही है। पहले जहां इस हिमालयी क्षेत्र में काफी ठंडक होती थी वहीं अब बारिश और बर्फ से खुला इलाका अधिक हो गया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग का सबसे अधिक असर यहां दिख रहा है जो काफी खतरनाक है।

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उन्होंने कहा कि आर्कटिक में समुद्री बर्फ में लगातार गिरावट आ रही है। यहां बेहद ठंडे साल में भी उतना बदलाव नहीं हुआ जितना अब देखने को मिल रहा है। रिसर्च करने वालों का कहना है कि इस क्षेत्र की जलवायु की दो अन्य विशेषताएं, मौसमी वायु तापमान और बर्फ के बजाय बारिश के दिनों की संख्या में बदलाव है। आर्कटिक दुनिया के उन हिस्सों में से एक है जो जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित हो रहे हैं। तेजी से बढ़ते तापमान के साथ समुद्री बर्फ के सिकुड़ने के अलावा अन्य प्रभाव दिख रहा है।

 

नेशनल सेंटर फॉर एटमॉस्फेरिक रिसर्च इन बोल्डर, कोलोराडो (National Center for Atmospheric Research in Boulder, Colorado) हालैंड के दो वैज्ञानिक इस पर लगातार रिसर्च कर रहे हैं। इनके नाम लॉरा लैंड्रम और मारिका एम हैं। इनका रिसर्च नेचर क्लाइमेट चेंज नामक जर्नल में प्रकाशित हुआ है। जलवायु वैज्ञानिक और अध्ययन के प्रमुख लेखक लैंड्रम ने कहा कि हर कोई जानता है कि आर्कटिक बदल रहा है। जिस तरह से बदलाव देखने को मिल रहे हैं उससे यही कहा जा सकता है कि यहां एक नई जलवायु बन रही है। 

दूसरे शब्दों में उनका कहना है कि आर्कटिक में इतनी तेजी से बदलाव हो रहा है कि उसका अंदाजा लगाना मुश्किल था। रिसर्च करने वालों ने पाया कि समुद्री बर्फ पहले से ही एक नई जलवायु में है। ये भी पाया गया कि हाल के सालों में यहां सबसे कम बर्फ का जमाव हुआ था मगर ये हाल के सालों में भी उम्मीद से कम है। 1970 के दशक के अंत में उपग्रह माप शुरू होने के बाद आर्कटिक समुद्री बर्फ में प्रति दशक लगभग 12% की गिरावट आई है और 13 सबसे कम समुद्री बर्फ वर्ष 2007 के बाद से आए हैं। 

इस बदलाव के सदी के मध्य तक पूरा होने की उम्मीद है। लैंड्रम ने कहा कि हम उस बिंदु पर पहुंचने लगे हैं जहां हम अब नहीं जान सकते कि क्या उम्मीद की जाए। कोलोराडो विश्वविद्यालय में एक जलवायु वैज्ञानिक जेनिफर ने कहा कि नए अध्ययन में पिछले लोगों पर बनाया गया है जिन्होंने कम जलवायु तत्वों को देखा था।

वैज्ञानिक लंबे समय से जानते हैं कि इस क्षेत्र में मूलभूत परिवर्तन हो रहे थे। वैज्ञानिकों का कहना है कि हम जानते हैं कि क्या हुआ करता था, हम इसे 'नया आर्कटिक' कहते हैं क्योंकि यह पहले के समान नहीं है। लैन्ड्रम ने कहा कि आर्कटिक समुदाय पहले से ही परिवर्तनों से पीड़ित हैं। 

लैंड्रम ने कहा कि अध्ययन में इस्तेमाल किए गए जलवायु मॉडल ने दुनिया में भविष्य का अनुकरण किया। उन्होंने कहा कि अगर हम अपने उत्सर्जन को बदलते हैं। आप बस  हार नहीं मान सकते यदि आप कड़ी मेहनत करते हैं और कुछ बदलाव करते हैं तो आप कुछ नाटकीय प्रभाव डाल सकते हैं। एक अन्य अध्ययन में कहा गया है कि दो अंटार्कटिक ग्लेशियर जो लंबे समय से समुद्र तल के उत्थान में योगदान करने की अपनी क्षमता को लेकर वैज्ञानिकों के लिए लंबे समय से चिंता का विषय हैं, पहले की तुलना में बदतर स्थिति में हो सकते हैं।

थवाइट्स और पाइन द्वीप ग्लेशियर बर्फ की नदियाँ हैं, जो महाद्वीप के आंतरिक भाग में पश्चिम अंटार्कटिक आइस शीट से धीरे-धीरे समुद्र की ओर बढ़ रही हैं। जहाँ यह पिघल जाती है और समुद्र के स्तर में पानी की बढ़ोतरी करती है। 


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