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जानें, दुनिया में जुल्‍म के खिलाफ आवाज उठाने वाली सू ची अपने ही देश में क्‍यों है लाचार

सू ची की इस उदा‍सीनता से खफा होकर एमनेस्टी इंटरनेशनल ने सू ची से अपना सर्वोच्च सम्मान वापस ले लिया है। आखिर वह अपने ही देश में सेना के सामने बेबस और लाचार क्‍यों हैं।

By Ramesh MishraEdited By: Published: Tue, 13 Nov 2018 12:28 PM (IST)Updated: Wed, 14 Nov 2018 10:20 AM (IST)
जानें, दुनिया में जुल्‍म के खिलाफ आवाज उठाने वाली सू ची अपने ही देश में क्‍यों है लाचार
जानें, दुनिया में जुल्‍म के खिलाफ आवाज उठाने वाली सू ची अपने ही देश में क्‍यों है लाचार

नई दिल्‍ली [ जागरण स्‍पेशल ]। दुनियाभर में मानवाधिकार के खिलाफ आवाज उठाने वाली म्यांमार की सर्वोच्च नेता आंग सान सू ची आखिर रोहिंग्‍या मुसलमानों पर हो रहे अत्‍याचार पर मौन क्‍यों हैं। यह जुल्‍म कोई और नहीं बल्कि म्‍यांमार की सेना द्वारा ही किया जा रहा है। सू ची की इस उदा‍सीनता से खफा होकर एमनेस्टी इंटरनेशनल ने सू ची से अपना सर्वोच्च सम्मान वापस ले लिया है। आखिर वो कौन से कारण थे, जिसके चलते वह अपने ही देश में सेना के सामने बेबस और लाचार दिखीं। इसके अलावा यह भी जानेंगे कि आख़िर रोहिंग्या कौन हैं ? इनसे म्यांमार को क्या दिक्क़त है ? ये भागकर बांग्लादेश क्यों जा रहे हैं ? इन्हें अब तक  नागरिकता क्यों नहीं मिली ?

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आखिर कौन हैं रोहिंग्‍या

म्यांमार की बहुसंख्यक आबादी बौद्ध है। यहां रोहिंग्या मुसलमान एक ऐसा अल्पसंख्यक समुदाय है, जिस पर सबसे ज़्यादा ज़ुल्म हो रहा है। यहां करीब 10 लाख रोहिंग्या मुसलमान हैं। ये रोहिंग्या मुख्य रूप से अवैध बांग्लादेशी प्रवासी हैं, लेकिन ये म्यामांर में पीढ़ियों से रह रहे हैं। म्‍यांमार का रखाइन स्टेट इनका गढ़ है। यही वजह है कि 2012 से यहां सांप्रदायिक हिंसा जारी है। इस हिंसा में अब तक हजारों रोहिंग्या को जान गंवानी पड़ी है। करीब एक लाख से ज्यादा लोग विस्थापित हुए हैं। म्‍यांमार की सरकार इन रोहिंग्‍या मुसलमानों को नागरिता देने से इंकार किया है। म्‍यांमार सरकार ने इन्हें नागरिकता देने से इनकार कर दिया है। आज हालात यह हैं कि बड़ी संख्या में रोहिंग्या मुसलमान आज भी जर्जर कैंपो में रह रहे हैं।

लोकतांत्रिक म्‍यांमार में सेना का दबदबा

प्रत्‍यक्ष या अप्रत्‍यक्ष लोकतांत्रिक म्यांमार के संविधान में भी सेना का ही दबदबा है। दरअसल, वर्ष 2008 में म्यांमार के फौजी जनरलों ने संविधान का मसौदा तैयार किया। इसमें ये साफ तौर पर उल्‍लेख है कि देश के सभी सुरक्षा बल सेना के कंट्रोल में रहेंगे। यहां तक कि इस दस्तावेज़ में किसी आंतरिक संकट की स्थिति में भी पुलिस की बजाय सेना को निर्णायक अधिकार दिए गए हैं। ऐसे में साफ़ है कि बात चाहे रखाइन संकट की हो या फिर अन्य किसी आंतरिक संकट की सरकार की हैसियत सेना से कम है। यही कारण है कि इस मामले में सू ची को बैकफुट पर आना पड़ा था। सू ची म्यांमार में 90 फीसद से अधिक बौद्ध जनता की आकांक्षाओं और सेना के दबदबे के बीच फंसी हैं।

लोकतंत्र की स्‍थापना के बाद भी समस्‍या जस की तस

सू ची साल 2016 में सत्ता में आईं। 25 वर्ष बाद म्‍यांमार में लोकतंत्र की बयार बही। यहां चुनाव हुए। इस चुनाव में नोबेल विजेता आंग सान सू ची की पार्टी नेशनल लीग फोर डेमोक्रेसी को भारी जीत हासिल हुई। यह उम्‍मीद की जा रही थी कि म्‍यांमार में सैन्‍य हुकूमत समाप्‍त होने के बाद इस समस्‍या का समाधान होगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हालांकि, संवैधानिक नियमों के कारण वह चुनाव जीतने के बाद भी राष्ट्रपति नहीं बन पाई थीं। सू ची स्टेट काउंसलर की भूमिका में हैं। हालांकि, कहा जाता है कि वास्तविक कमान सू ची के हाथों में ही है। लेकिन वह कई मामलों में सेना के आगे असहाय हैं।

सैन्‍य सत्‍ता ने किया दमन और शोषण

म्‍यांमार की सै‍‍न्य सत्ता ने इनका कई बार दमन किया। इनकी बस्तियों को जलाया गया। इनकी जमीन हड़प ली गई। इनकी मस्जिदों को बर्बाद किया गया। इन्हें देश से बाहर खदेड़ दिया गया। ऐसी स्थिति में ये बांग्लादेश की सीमा में प्रवेश कर जाते हैं। थाईलैंड की सीमावर्ती क्षेत्रों में घुसते हैं या फिर सीमा पर ही शिविर लगाकर रहते हैं। 1991-92 में दमन के दौर में करीब ढाई लाख रोहिंग्या बांग्लादेश भाग गए थे। इससे पहले इनको सेना ने बंधुआ मजदूर बनाकर रखा, लोगों की हत्याएं भी की गईं, यातनाएं दी गईं और बड़ी संख्या में महिलाओं से बलात्कार किए गए।

संयुक्त राष्ट्र ने कई बार जाहिर की चिंता

संयुक्त राष्ट्र की कई दफे अपनी रिपोर्टों में इस समस्‍या पर चिंता व्‍यक्‍त  की है। संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि रोहिंग्या दुनिया के ऐसे अल्पसंख्यक हैं, जिनका लगातार सबसे अधिक दमन किया गया है। बर्मा के सैनिक शासकों ने 1982 के नागरिकता कानून के आधार पर उनसे नागरिकों के सारे अधिकार छीन लिए हैं। ये लोग सुन्नी इस्लाम को मानते हैं और बर्मा में इन पर सरकारी प्रतिबंधों के कारण ये पढ़-लिख भी नहीं पाते हैं तथा केवल बुनियादी इस्लामी तालीम हासिल कर पाते हैं।

मानवाधिकार के लिए काम करने वाली संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने आंग सान सू ची से अपना सर्वोच्च सम्मान 'एंबेसडर ऑफ़ कॉन्शियंस अवॉर्ड' वापस ले रहा है। एमनेस्टी का कहना है कि रोहिंग्या के मामले में उनकी चुप्पी बेहद निराश करने वाली रही है। यह सम्‍मान उन्‍हें 2009 में उस समय दिया था जब वह घर में नजरबंद थीं।


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