1979 की इस्लामी क्रांति के बाद ईरान के पहले राष्ट्रपति बने अबोलहसन बनीसदर का निधन
ईरान में साल 1979 की इस्लामी क्रांति के बाद देश के पहले राष्ट्रपति अबोलहसन बनीसदर का शनिवार को 88 साल की उम्र निधन हो गया। देश में धर्मतंत्र बनने और मौलवियों की बढ़ती ताकत को चुनौती देने के कारण उन्हें महाभियोग का सामना करना पड़ा था।
तेहरान, एजेंसियां। ईरान में साल 1979 की इस्लामी क्रांति के बाद देश के पहले राष्ट्रपति अबोलहसन बनीसदर का शनिवार को 88 साल की उम्र निधन हो गया। देश में धर्मतंत्र बनने और मौलवियों की बढ़ती ताकत को चुनौती देने के कारण उन्हें महाभियोग का सामना करना पड़ा था। इसके बाद उन्होंने तेहरान छोड़ दिया था। बनीसदर की आधिकारिक वेबसाइट पर उनकी पत्नी और बच्चों ने कहा कि लंबी बीमारी के बाद पेरिस के पिटी-सालपेट्रीयर अस्पताल में उनका निधन हो गया।
बनीसदर जनवरी 1980 में इस्लामिक पादरियों की मदद से ईरान के पहले राष्ट्रपति बने थे। लेकिन कट्टरपंथी मौलवियों के साथ सत्ता संघर्ष के बाद उन्हें देश छोड़ना पड़ा और वह अगले वर्ष फ्रांस चले गए। यहां उन्होंने अपना शेष जीवन बिताया। उनकी मृत्यु की जानकारी देते हुए उनके परिवार ने वेबसाइट पर कहा कि बानीसदर ने 'धर्म के नाम पर नए अत्याचार और उत्पीड़न के सामने आजादी की रक्षा की'। उनका परिवार चाहता है कि उन्हें पेरिस के उपनगर वर्साय में दफनाया जाए, जहां वे अपने निर्वासन के दौरान रहते थे।
माना जाता है कि बनीसदर कभी भी सरकार पर अपनी पकड़ मजबूत नहीं कर पाए। इससे स्थिति उनके हाथ से निकल गई। अमेरिकी दूतावास बंधक संकट और इराक द्वारा ईरान पर आक्रमण के चलते अंत में क्रांति हुई। ईरान के शीर्ष धार्मिक नेता अयातुल्ला रुहोल्ला खोमैनी असल में शक्तिशाली रहे, जिसके लिए बनिसदर ने फ्रांस में निर्वासन के दौरान काम किया और क्रांति के बीच तेहरान वापस चले गए। खोमैनी ने केवल 16 महीने बाद उन्हें पद से हटा दिया।
2019 में रायटर्स के साथ इंटव्यू में पूर्व राष्ट्रपति ने कहा कि अयातुल्ला रुहोल्ला खोमैनी ने 1979 में सत्ता में आने के बाद क्रांति के सिद्धांतों को धोखा दिया था। उन्होंने कहा कि क्रांति के बाद उनके साथ तेहरान लौटे कुछ लोगों को यह बात काफी खराब लगी थी कि धार्मिक नेता की इस्लामी क्रांति शाह के शासन के बाद लोकतंत्र और मानवाधिकारों का मार्ग प्रशस्त करेगी। बनीसदर ने इस दौरान बताया था कि कैसे 40 साल पहले पेरिस में उन्हें विश्वास हो गया था कि धार्मिक नेता की इस्लामी क्रांति शाह के शासन के बाद लोकतंत्र और मानवाधिकारों का मार्ग प्रशस्त करेगी।