कैसे अधिक कारगर बन सकती है Covid 19 vaccine, इसको लेकर अलग हैं वैज्ञानिकों के विचार
पूरी दुनिया के वैज्ञानिक एक ऐसी वैक्सीन को बनाने में जुटे हैं जो इसके मरीजों पर कारगर साबित हो सके। हर वैज्ञानिक की राय इस बारे में तो एक समान है लेकिन वैज्ञानिकों के बीच इसको लेकर आम राय नहीं है कि आखिर ये कैसे अधिक कारगर बनाई जा सकती है। जरनल के
न्यूयॉर्क (आईएएनएस)। पूरी दुनिया के वैज्ञानिक कोरोना वायरस की वैक्सीन के लिए दिन रात एक किए हुए हैं। सभी चाहते हैं कि ये वैक्सीन जल्द से जल्द दुनिया के सामने आ जाए जिससे लोगों की जान बचाई जा सके। पूरी दुनिया में इस वायरस से करीब डेढ़ करोड़ से अधिक लोग संक्रमित हैं। अकेले अमेरिका में ही इससे 41 लाख से अधिक लोग संक्रमित हैं। वहीं पूरी दुनिया में इसकी वजह से 6.37 लाख से अधिक लोगों की अबतक जान जा चुकी है। ऐसे में पूरी दुनिया के वैज्ञानिक एक ऐसी वैक्सीन को बनाने में जुटे हैं जो इसके मरीजों पर कारगर साबित हो सके। दुनिया के हर वैज्ञानिक की राय इस बारे में तो एक समान है लेकिन दुनियाभर के वैज्ञानिकों के बीच इस बात को लेकर आम राय नहीं है कि आखिर ये कैसे अधिक कारगर बनाई जा सकती है
जरनल केमिकल एंड एंप इंजीनियरिंग न्यूज में छपी एक रिसर्च रिपोर्ट में शोधककर्ताओं की डॉक्टरों और बिजनेस लीडर्स के साथ हुई बातचीज के दौरान इस वैक्सीन को विकसित करने को लेकर सामने आ रही चुनौतियों का जिक्र किया गया है। आपको बता दें कि इसी माह विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा था कि पूरी दुनिया में इस जानलेवा वायरस की काट करने वाली वैक्सीन के करीब 160 प्रोजेक्ट चल रहे हैं। इस शोध के लेखक रेयान क्रॉस का कहना है कि इन सभी का एक ही लक्ष्य भी है। एक जानकार का कहनाहै कि कोविड -19 का बड़ा कारक SARS-CoV-2 वायरस है। ये वायरस इंसान के शरीर में जाकर सेल्स से चिपक जाता है। इसमें कहा गया है कि वैक्सीन को विकसित करने के दोनों ही तरीके काफी समय लेते हैं और इनमें खतरा भी कम नहीं है। इसकी वजह एक ये भी है कि इसको विकसित करने के लिए कंपनियों को बड़ी संख्या में वायरस की जरूरत पड़ती है। यही वजह है कि कुछ वैज्ञानिक जीन बेस्ड वैक्सीन के प्रयोग की तरफ मुड़ जाते हैं।
क्रॉस के मुताबिक शोधकर्ता हार्मलैस वायरस में स्पाइक प्रोटीन के लिए जेनेटिक कोड डालते हैं। ये प्रक्रिया डीएनए के समान ही होती है जहां मानव शरीर की सेल्स से जेनेटिक जानकारियां ली जाती हैं। इन सेल्स का इस्तेमाल स्पाइक प्रोटीन बनाने के लिए किया जाता है जो शरीर के इम्यून सिस्टम को मजबूत करती है। वैज्ञानिक इस तरह की वैक्सीन काफी जल्दी डिजाइन कर सकते हैं और बना भी सकते हैं। लेकिन, आखिर में तकनीक काफी मायने रखती है। यही वजह है कि इस बात की आशंका बनी रहती है कि विकसित की गई वैक्सीन कारगर होगी या नहीं। इसके अलावा कई अन्य बदलावों के जरिए भी स्पाइक प्रोटीन को बनाया जा सकता है जो हमारे शरीर के इम्यून सिस्टम को मजबूत करने में सहायक साबित हो सकते हैं।
क्रॉस के मुताबिक जो भी वैज्ञानिक कोरोना वायरस की वैक्सीन बनाने में जुटे हैं उनका ज्यादातर फोकस इसके इस्तेमाल वाले शरीर पर लगा है। वो मानते हैं कि उनका शरीर प्राकृतिक रूप से काफी मात्रा में एंटीबॉडीज का निर्माण कर सकेगा जो आंतरिक सेल्स से वायरस की रक्षा कर पाएगी। लेकिन इस प्रक्रिया के तहत बनने वाली वैक्सीन के सामने भी कई सारी चुनौतियां हैं। वो मानते हैं कि लैब में बनाए गए एंटीबॉडीज के रिजल्ट को आइडियल नहीं माना जा सकता है। ये भी अब तक पता नहीं चला है कि आखिर कितनी संख्या में एंटीबॉडीज का होना या बनना शरीर के लिए सही है और इसका कितना लंबा और गहरा असर होता है। क्रॉस का कहना है कि यदि एंटीबॉडी स्तर काफी अधिक नहीं हैं, तो एक व्यक्ति को केवल आंशिक प्रतिरक्षा के साथ छोड़ा जा सकता है, जो गंभीर लक्षणों को रोक सकता है लेकिन फिर भी उन्हें दूसरों को संक्रमित करने की क्षमता होती। ऐसे में एक व्यक्ति पर जो कारगर साबित हो सकता है जरूरी नहीं है कि वो दूसरों पर भी उतनी ही कारगर हो।