Move to Jagran APP

पहली गैर अंग्रेजी एशियाई फिल्म 'Parasite’ को मिले Oscar ने सभी को चौंका दिया

Parasite जब भारतीय सिनेमाघरों में रिलीज हुई तो इसको न तो ज्‍यादा सफलता मिली और न ही इस पर कभी कोई चर्चा हुई। लेकिन इसने ऑस्‍कर जीतकर सभी को चौंका दिया।

By Kamal VermaEdited By: Published: Tue, 03 Mar 2020 10:18 AM (IST)Updated: Tue, 03 Mar 2020 10:18 AM (IST)
पहली गैर अंग्रेजी एशियाई फिल्म 'Parasite’ को मिले Oscar ने सभी को चौंका दिया
पहली गैर अंग्रेजी एशियाई फिल्म 'Parasite’ को मिले Oscar ने सभी को चौंका दिया

पीयूष द्विवेदी। 31 जनवरी को भारतीय थिएटरों में लगभग सौ स्क्रीन पर दक्षिण कोरियाई फिल्म ‘पैरासाइट’ प्रदर्शित हुई थी। तब इस फिल्म पर भारत में बहुत अधिक कोई चर्चा नहीं हुई। स्क्रीन कम होने के कारण न तो दर्शकों के बीच इसे लेकर कोई रुझान दिखा और न ही फिल्म समीक्षकों का ही इसपर ध्यान गया। लेकिन दस फरवरी को जब यह घोषणा हुई कि इस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फिल्म, सर्वश्रेष्ठ निर्देशक, सर्वश्रेष्ठ अंतरराष्ट्रीय फीचर फिल्म और सर्वश्रेष्ठ मौलिक पटकथा का ऑस्कर दिया गया है तो फिर भारत सहित दुनिया भर में इसे लेकर लोगों की जिज्ञासा बढ़ गई।

prime article banner

बांग जून हो निर्देशित ‘पैरासाइट’ पहली गैर अंग्रेजी एशियाई फिल्म है, जिसे ऑस्कर प्राप्त हुआ है। इसके साथ ही संभव है कि ऑस्कर निर्णायकों पर लगने वाले इस आरोप पर कुछ विराम लगे कि यह पुरस्कार देने में गैर-अंग्रेजी फिल्मों के साथ भेदभाव किया जाता है। पैरासाइट दो परिवारों की कहानी है। एक परिवार अमीर है और दूसरा गरीब। फिर कुछ नाटकीय घटनाक्रमों के साथ गरीब परिवार के सदस्य अपने संबंध को अप्रकट रखते हुए अमीर परिवार में अलग-अलग भूमिकाओं में नौकरी करने लगते हैं। इस नौकरी के साथ उनका जीवन बेहतर चलने लगता है, लेकिन जीवन-स्तर में आया ये बदलाव उनके व्यवहार और सोच में भी बदलाव लाता है। हम देखते हैं कि वे जरा-सी बेहतर स्थिति में पहुंचते ही अपने जैसे गरीबों के प्रति कटु व्यवहार करने लगते हैं। इसके बाद हम धीमे-धीमे गरीबी-अमीरी के द्वंद्व की आंतरिक जटिलताओं से भी परिचित होते हैं। 

झूठ बोलकर नौकरी पाने वाले तरीके पर बॉलीवुड में भी फिल्में बनी हैं, लेकिन उनकी सीमा का विस्तार हास्य तक ही रहा है और अंत आदर्शवादी ढंग से हो गया है, जबकि पैरासाइट इस बिंदु पर ही बड़ी फिल्म बन जाती है। इसमें थोपा गया कोई आदर्शवाद नहीं है और न ही बनावटी यथार्थ। इसके गरीब पात्रों के प्रति न तो कभी सहानुभूति होती है, न ही अमीरों के प्रति घृणा पैदा करने की कोशिश ही फिल्म में की गई है। इसके सभी रंग स्वाभाविक होते हुए भी समग्र कैनवस पर आर्थिक असमानता और पूंजी की समस्या को लेकर एक अनूठा चित्र खींचने में कामयाब रहते हैं। भारत की तरफ से अबकी ऑस्कर में गली बॉय को भेजा गया था। ऑस्कर में भारतीय फिल्मों के प्रवेश की शुरुआत 1957 महबूब खान की मदर इंडिया से होती है जो ऑस्कर की ‘सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फिल्म’ की श्रेणी में नामित होने में कामयाब भी रही थी, लेकिन पुरस्कार नहीं प्राप्त कर सकी।

इसके तीन दशक बाद 1988 में दूसरा मौका आया जब मीरा नायर की ‘सलाम बॉम्बे’ को ऑस्कर में नामित किया गया, लेकिन पुरस्कार इसे भी नहीं मिला। फिर 2001 में आमिर खान की लगान के साथ भी यही हुआ। इसके अलावा विधु विनोद चोपड़ा की ‘एन एनकाउंटर विद फेसेस’, आश्विन कुमार की ‘लिटिल टेररिस्ट’, रायका जेहताबची की ‘पीरियड एंड ऑफ सेंटेंस’ भारत की कुछ डॉक्यूमेंट्री लघु फिल्में भी ऑस्कर में जा चुकी हैं। इनमें ‘पीरियड एंड ऑफ सेंटेंस’ को ऑस्कर मिला भी था। लेकिन भारतीय भाषाओं की फीचर फिल्में आज भी ऑस्कर की प्रतीक्षा में हैं। गांधी और स्लमडॉग मिलिनेयर भारतीय पृष्ठभूमि और कहानी पर आधारित विदेशी निर्देशकों की वे दो फिल्में हैं, जिन्होंने ऑस्कर में झंडा गाड़ा था। इन दोनों फिल्मों ने विभिन्न श्रेणियों में आठ-आठ ऑस्कर जीते थे और इनके लिए दो भारतीयों भानु अथैया और एआर रहमान को भी ऑस्कर मिला था।

अब सवाल यह उठता है कि ऐसा क्यों है कि भारतीय नायक या भारतीय पृष्ठभूमि की कहानी पर विदेशी निर्देशक ऑस्कर विजेता फिल्में बना लेते हैं, जबकि बॉलीवुड नहीं बना पाता। क्या इस सवाल का बॉलीवुड फिल्म निर्माता-निर्देशकों के पास कोई जवाब है कि बॉलीवुड में गांधी पर अबतक कोई अच्छी फिल्म क्यों नहीं बन पाई? ऐसे ही स्लमडॉग मिलिनेयर की कहानी उस मुंबई की गरीबी पर है, जिस मुंबई में पूरा बॉलीवुड बसता है। लेकिन इसपर फिल्म बनाने के लिए डैनी बॉयल को आना पड़ता है। देश में एक राय यह मिलती है कि हमें ऑस्कर के प्रमाणपत्र की जरूरत क्या है। बात किसी प्रमाणपत्र की नहीं है, लेकिन फिल्म पुरस्कारों में ऑस्कर की वैश्विक प्रतिष्ठा से इन्कार नहीं किया जा सकता।

अब अगर हम अपने फिल्म सम्मानों को भी वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठित करने में कामयाब होते तो जरूर हमें ऑस्कर की परवाह करने की जरूरत नहीं थी। लेकिन राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों को छोड़ दें तो हमारा कोई फिल्म पुरस्कार विश्व में तो दूर की बात है, देश में भी विश्वसनीय और सम्मानित दृष्टि से नहीं देखा जाता। अभी हाल ही में घोषित फिल्मफेयर पुरस्कारों को लेकर मचा बवाल इसी का उदाहरण है। सो कुल मिलाकर बात यह है कि हमारे भारतीय फिल्मकारों को भारतीय समाज में मौजूद नए विषयों को चिन्हित करते हुए न केवल वर्तमान, बल्कि भविष्य दृष्टि के साथ उनपर नए तरीकों से फिल्म बनाने की दिशा में प्रयास करना चाहिए। ऐसे प्रयास ही भारतीय सिनेमा को वैश्विक प्रतिष्ठा प्रदान करेंगे। अंतत: बात यह भी है कि साहसिक प्रयास ही सम्मान का संधान करते हैं।

(लेखक कला संस्‍कृति मामलों के जानकार हैं) 


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.