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यरुशलम पर ट्रंप के फैसले से एक नहीं, दो नहीं पूरा अरब जगत होगा प्रभावित

अमेरिका द्वारा यरुशलम को इजरायल की राजधानी के रूप में मान्यता देने पर जानकारों का कहना है कि इससे मध्य एशिया और अशांत हो जाएगा।

By Lalit RaiEdited By: Published: Mon, 11 Dec 2017 03:55 PM (IST)Updated: Mon, 11 Dec 2017 04:05 PM (IST)
यरुशलम पर ट्रंप के फैसले से एक नहीं, दो नहीं पूरा अरब जगत होगा प्रभावित
यरुशलम पर ट्रंप के फैसले से एक नहीं, दो नहीं पूरा अरब जगत होगा प्रभावित

नई दिल्ली [स्पेशल डेस्क]। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने यरुशलम को इजरायल की राजधानी मान लिया है। आखिर क्यों ट्रंप ने यूनाइटेड स्टेट अमेरिका की ओर से यरुशलम को इजरायल की राजधानी के रुप में मान्यता दी आखिर क्यों कुछ एक्सपर्ट ट्रंप के इस फैसले से हिंसा भड़कने और शांति वार्ता के पटरी से उतरने का अंदेशा जता रहे हैं। आखिर यरुशलम को लेकर क्या विवाद है। आइए जानते हैं इस पूरे विवाद के बारे में। इजरायल और फलिस्तीन दोनों देश यरुशलम पर राजनीतिक और धर्मिक तौर पर अपना दावा पेश करते हैं। यरुशलम शहर पर इजरायल का पूरी तरह नियंत्रण है। इसके समाधान के लिए किसी शांति समझौता की आवश्यकता बतायी जा रही है।

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यरुशलम,1948 में अरब-इजरायल युद्ध
यरुशलम शहर के स्टेट्स को लेकर वर्ष 1948 में अरब इजरायल युद्ध हुआ, जिसके बाद से यरुशलम के स्टेट्स को लेकर आधिकारिक तौर पर विवाद चल रहा है। इस युद्ध से पहले संयुक्त राष्ट्र की ओर से यरुशलम को स्पेशल इंटरनेशनल जोन के रुप में मान्यता दी गयी थी। युद्ध के दौरान इजरायल की ओर से यरुशलम शहर के पश्चिमी हिस्से पर कब्ज कर लिया गया। इसके बाद वर्ष 1967 में हुए दूसरे अरब इजरायल युद्ध में इजरायल ने पूरे हिस्से पर कब्जा कर लिया था। एक शांति समझौते के जरिए पश्चिमी यरुशलम को इजराल और पूर्वी यरुशलम को फलिस्तीन को देने की बात कही जा रही था।

संयुक्त राज्य अमेरिका की ओर से यलरुशलम को लंबे समय से एक विवादस्पद मुद्दा माना जाता रहा है। हालांकि ट्रंप के फैसले ने अमेरिका के पूर्ववर्ती तटस्थ रहने के वादे को दरकिनार करते हुए फैसला लिया, जो कि एक दलाल की तरह अमेरिका को पेश कर रहा है। ट्रंप की ओर से यरुशलम को इजरायल की राजधानी के रुप में मान्यता दिये जाने से अमेरिका की तटस्थ रहने का वादा टूट गया। अमेरिका का यह फैसला इजरायल के उस दावे का समर्थन करता है,जिसके मुताबिक इसराइल की राजधानी अविभाजित यरुशलम होगी। इजरायल की ओर से वर्ष 1980 के कानून के मुताबिक इसकी घोषणा की गयी थी, जिसका सीधा मतलब था कि यरुशलम के पूर्वी हिस्से भी इजरायल का होगा।


ट्रंप ने यरुशलम को इजरायल की राजधानी के रुप में मान्यता दे दी। लेकिन उन्होंने इजरायल के उस कानून का जिक्र नहीं किया। हालांकि उन्होंने उसे रिजेक्ट भी नहीं किया और न ही कहा कि यरुशलम फलिस्तीन की राजधानी भी होनी चाहिए। इसका मतलब यही है कि अमेरिकी राष्ट्रपति इजरायल की स्थिति को लेकर अपना समर्थन बढ़ा रहा है, जिससे कि यरुशलम को लेकर किसी तरह का समझौते की उम्मीद खत्म हो जाती है।

अमेरिका के इस ऐलान से क्या प्रभाव होगा

अमेरिका ने विवाद के शुरुआत से अपने को प्राथमिक तौर पर इजरायल और फलिस्तीन के बीच मध्यस्थ देश के रुप में स्थापित किया और अपने को तटस्थ दिखाने को कोशिश की। दोनों देशों के समझौते के बीच भी अमेरिका एक विश्वसनीय मध्यस्थ देश रहा है। अमरेकी कूटनीतिज्ञों के मुताबिक तटस्थता किसी शांति समझौते का पहला पड़ाव होता है। हालांकि ट्रंप ने जिस तरह से एकतरफा फैसला लिया। उसके बाद से स्थिति काफी बदल गयी है।अमेरिकी राजनीति में यरुशलम को लेकर तटस्थता की नीति 1980 के दशक से ही विवादास्पद हो गयी थी और उस वक्त से ही इजरायल को ईसाईयत के मुद्दे पर कुछ हद तक समर्थन किया जाने लगा था। इजरायल की स्थिति का समर्थन इजरायल के यरुशलम पर कब्जे को समर्थन था। हालांकि कई फलिस्तीनी ईसाई नेता भी ट्रंप के इस फैसले का विरोध कर रहे हैं।

यरुशलम के इजरायल की राजधानी को लेकर बहस अमेरिका राजनीति का पुराना मुद्दा रहा है, जो अक्सर चुनावी माहौल में उठाया जाता रहा है। इस बार के राष्ट्रपति उम्मीदवार ट्रंप ने भी इस मुद्दे को लेकर वादा किया और राष्ट्रपति बनने के बाद अपने वादे के मुताबिक यरुशलम को इजरायल की राजधानी के रुप में मान्यता दी। हालांकि उनकी ओर से अमेरिकी दूतावास को तेल अवीव से यरुशलम तुरंत शिफ्ट नहीं किया गया।

क्या अमेरिका वास्तव में तटस्थ रहा है?
अमेरिका के बाहर ऐसा लोगों का वास्तव में मानना नही रहा है। खासकर यूरो और मध्य पूर्व देशों का। विश्व के ज्यादातर देश मानते रहे हैं कि अमेरिका का इजरायल के प्रति झुकाव रहा है और उसकी सहायता करता रहा है। किसी विवाद की सूरत में इजरायल के हितों को आगे रखने का कार्य किया है, जिसकी वजह से इजरायल और फलिस्तीन में हमेशा शक्ति असंतुलन रहा है। इसी की वजह से इजरायल का कब्जा बढ़ता रहा और उसके कब्जे को अमेरिकी समर्थन मिलता रहा। कई मौकों पर अमेरिका के इस कदम की आलोचना की गयी।


अमेरिकी राजनेताओं की ओर से अपनी घरेलू राजनीतिक को साधने के लिए भी इजरायल का समर्थन किया गया। राजनेताओं की ओर से खुद को इजरायल के साथ सहानुभूति रखते हुए दिखने की होड़ थी, जबकि कूटनीतिक तौर पर खुद को तटस्थ दिखाया गया। दशकों से अमेरिकी की यह नीति रही है। लेकिन अंतिम तीन राष्ट्रपतियों बिल क्लिंटन, जार्ज डबल्यू बुश और बराक ओबामा ने भी अमेरिका जनता को विश्वास दिलाया कि वो ग्रैंड इजरायल का समर्थन करते हैं, जो कि भय रहित वातावरण में रह सकें।अमेरिकी राष्ट्रपति के निर्णय ने पीछ हद तक नयी बहस छेड़ दी है। अमेरिकी की पिछली स्ट्रैटजी को लेकर भी एक बहस का वातावरण है। अमेरिका के बाहर अमेरिकी लीडरशिप को लेकर काफी संदेहपूर्ण रवैय्या उत्पन्न हो गया है।

अब क्या होगा ?

यरुशलम पर अमेरिकी रुख के बाद विरोध हिंसक रुप ले सकता है। यह फलिस्तीनियों को उकसावे का एक समान्य जवाब होगा। फलिस्तीन के मुताबिक इजरायल का जेऱुशलम पर कब्जा महंगा पड़ सकता है,जो कि वो कभी भूल नहीं सकेंगे। वहीं अरब जगत की ओर से अमेरिका की लोकप्रियता और भरोसेमंदी पर सवाल उठता रहा है। जब से अमेरिका ने अरब बहुमत वाले देश इराक में घुसपैठ की थी। युद्ध हुआ, जिसमें हजारों-लाखों लोग मारे गये। यह एक घटना थी, जिसने अरब जगत में अमेरिका की लोकप्रियता को कम करने वाला था।

जार्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान के मार्क लाइंच ने वाशिंगटन पोस्ट में लिखा कि अमेरिका लंबे समय से एक व्यवस्था के तहत शांति स्थापित करने के उद्देश्यों के साथ इजरायल और इजरायल विरोधी राष्ट्रों के साथ गठजोड़ बनाए हैं। लेकिन ट्रंप का फैसला इसमें बदलाव करने की ओर बढ़ रहा है।

ट्रंप के फैसले के बाद अरब देशों में अमेरिका के साथ गठजोड़ को उचित साबित करना मुश्किल हो जाएगा। अगर अरब जगत के देश अमेरिका और इजरायल के इस गठजोड़ को नजरअंदाज करते हैं, तो उनके यहां घरेलु अशांति फैल सकती है। हालांकि अमेरिका और इजरायल के गठजोड़ का मतलब यह नहीं है कि अरब देश अमेरिका के साथ गठजोड़ तोड़ देंगे। लेकिन उन्हें पहले के मुकाबले अधिक सावधान रहने की आवश्यकता हो सकती है।

लंबे समय में अमेरिकी फैसले का असर

लंबे समय में अमेरिका अपने तटस्थ रहने के दावे को खो देगा। इसके साथ ही इजरायल और फलिस्तीन के बीच शांति स्थापित होने की कोशिशों को झटका लग सकता है और इस शांति वार्ता में अमेरिकी लाभ नहीं मिल सकेगा। लेकिन सामान्य तौर पर अमेरिका की तटस्थता की नीति को झटका लग सकता है, जो कि अमेरिका के लिए एक बड़ा नुकसान हो सकता है। वहीं अमेरिका की ओर से इजरायल के हितों की रक्षा और वहां के लोगों को सुरक्षा संबंधी मुद्दों को लेकर इजरायल को मिलिट्री साफ्टवेयर सप्लाई किया जा सकता है।

अमेरिकी निर्णय का एक महत्वपूर्ण असर यह होगा कि फलिस्तीन में वित्त और अन्य मामलों पर अमेरिका पर निर्भर रहने वाले नेताओं पर घरेलू लोगों का विश्वास कमजोर होगा और उनकी लोकप्रियता में गिरावट होगी। यह फलिस्तीनी नेताओं के लिए वास्तविक जोखिम है। उनका प्रशासन गिर सकता है और फलिस्तीन में अराजकता और हिंसा भड़क सकती है। संभावना है कि फलिस्तीन समर्थक आतंकवादी समूह हमास इलाके को अपने कब्जे में ले सकते हैं।

इस वजह से भविष्य में शांति स्थापित होने की कोशिशें कम ही नजर आ रही हैं। इसके साथ ही इजरायल को भविष्य में अपनी पहचान के रुप में यहूदी या फिर लोकतांत्रिक किसी एक को चुनना पड़ सकता है। या फिर फलिस्तीनियों को कुछ अधिकार दिये जा सकते हैं। इसके साथ ही रंगभेद के शिकार दक्षिण अफ्रीका के देशों की तरह फलिस्तीनियों को पूर्ण अधिकार दिये जा सकते हैं और इजरायल यहूदी नहीं बल्कि बहुलवादी लोकतंत्र की स्थापना कर सकता है। ट्रंप के कदम से इजरायल और फलिस्तीन के भविष्य को ज्यादा स्पष्ट तौर पर नजरदीक देखा जा रहा है। लेकिन सच्चाई यह भी कि इसे लेकर कोशिशें काफी पहले से चल रहीं थी।
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