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बंगाल के हुगली जिले के सिंगुर की पुरुषोत्तमपुर गांव की डकैत काली मंदिर श्रद्धालुओं के आस्था का है प्रतीक

550 वर्ष पहले यहां डकैत एवं लुटेरों ने मां काली की सर्वप्रथम आराधना की थी। यही कारण है कि इस प्राचीन मंदिर का नाम डकैत काली पड़ा। वैधवाटी-तारकेश्वर रोड़ पर स्थित मंदिर में काली पूजा के दिन चार पहर मां काली की विशेष रूप से पूजा अर्चना की जाती है।

By Vijay KumarEdited By: Published: Fri, 13 Nov 2020 04:19 PM (IST)Updated: Fri, 13 Nov 2020 04:19 PM (IST)
बंगाल के हुगली जिले के सिंगुर की पुरुषोत्तमपुर गांव की डकैत काली मंदिर श्रद्धालुओं के आस्था का है प्रतीक
स्वास्थ्य नियमों को ध्यान में रखते हुए काली पूजा का आयोजन किया जाएगा।

राज्य ब्यूरो, कोलकता : बंगाल के हुगली जिले के सिंगुर स्थित पुरुषोत्तमपुर गांव की डकैत काली मंदिर श्रद्धालुओं के आस्था का प्रतीक है। 550 वर्ष पहले यहां डकैत एवं लुटेरों ने मां काली की सर्वप्रथम आराधना की थी। यही कारण है कि इस प्राचीन मंदिर का नाम डकैत काली पड़ा। 

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चार पहर मां काली की विशेष रूप से पूजा अर्चना 

वैधवाटी-तारकेश्वर रोड़ पर स्थित इस मंदिर में काली पूजा के दिन चार पहर मां काली की विशेष रूप से पूजा अर्चना की जाती है। कहा जाता है कि एक बार मां सारदा कामारपुकुर से दक्षिणेश्वर मंदिर में बीमार पड़े ठाकुर राम कृष्ण को देखने जा रही थी। 

सारदा मां के मुखमंडल पर रघु एवं गगन को दर्शन

तभी मां सारदा के शरीर का आभूषण लुटने के लिए यहां रघु एवं गगन नाम के दो कुख्यात डकैत ने उनका रास्ता रोका था। डकैतों के उद्देश्य को परखते हुए सारदा मां के मुख मंडल पर महाकाली ने इन दोनों को दर्शन दिया। 

रघु एवं गगन ने घने जंगल ले जाकर कराया विश्राम 

मां काली की विशाला नैन एवं खून से मुंह लथपथ देख दोनों बलशाली डकैत मां शारदा के पांव पर गिर पड़े और उनसे क्षमा याचना करने लगे। इसके बाद रघु एवं गगन ने उन्हें घने जंगल में ले जाकर विश्राम कराया। 

भोर होते ही सारदा मां दक्षिणेश्वर के लिए निकल पड़ी

रात के समय लुटेरों ने एक कढ़ाई में थोड़ा सा चावल भूनकर मां सारदा को खाने के लिए दिया। रघु एवं गगन द्वारा दी गई भोजन खाकर मां तृप्त हुई और भोर होते ही सारदा मां फिर यहा से दक्षिणेश्वर जाने के लिए निकल पड़ी। 

सपने में आई मां, कहा-घने जंगल में करो अराधना

दूसरे दिन मां काली इनके सपने में आई। और रघु एव गगन से कहा कि तुम इस घने जंगल में मेरी आराधना करों यहां मेरा पूजन करने से जग का कल्याण होगा। 

दोनों डकैत गलत कार्य छोड़ करने लगे अराधना 

इसके बाद इन दोनों डकैत सभी गलत कार्यों को छोड़कर एक कलश में सरस्वती नदी का जल भर कर माता रानी की आराधना करने लगे। इसके बाद लोगों ने मिलकर यहां मां काली की मंदिर का निर्माण कराया। 

मंदिर में रखे कलश काली पूजा के दिन बदलते

मंदिर के पुरोहित सुभाष चन्द्र बनर्जी ने बताया कि मंदिर में रखे कलश को साल भर के बाद काली पूजा के दिन ही बदला जाता है। कलश का जल बदले जाने के बाद काली पूजा के दिन चार पहर मां काली की विशेष भोग के साथ पूजा अर्चना की जाती है। 

मां काली को भुना हुआ चावल का प्रसाद चढ़ाते 

मां का विशेष भोग भुना हुआ चावल है। जो भक्त इस मंदिर में दर्शन करनें आते है वे मां काली को भुना हुआ चावल का ही प्रसाद चढ़ाते है। वर्षो पहले इस मंदिर में नर बली की भी प्रथा थी। 

भीड़ को नियंत्रित करने के लिए विशेष व्यवस्था

इधर, कोरोना महामारी के चलते इस बार यहां उत्सव का आयोजन बंद रखा गया है। स्वास्थ्य नियमों को ध्यान में रखते हुए काली पूजा का आयोजन किया जाएगा। भक्तों की भीड़ को नियंत्रित करने के लिए यहां विशेष व्यवस्था की जा रही है। 

मुख्य द्वार पर सैनिटाइजर, मास्क पहनना जरूरी 

मंदिर के मुख्य द्वार पर सैनिटाइजर रखा जाएगा जबकि मंदिर में प्रवेश के पहले मास्क पहनना जरूरी रखा गया है। मालूम हो कि मंदिर से सटे मल्लिकपुर, जमिनबेडिया तथा पुरुषोत्तमपुर गांव में मां काली की प्रतिमा रख कर पूजा नहीं की जाती है। गांव वाले यहीं काली मां की पूजा करते हैं।


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