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Bengal Politics: ममता दीदी की पेगासस जासूसी कांड की जांच आयोग वाली सियासत

ममता बार-बार फोन टैपिंग के आरोप लगाती रही हैं। हालांकि इनमें से एक भी मामला अब तक तार्किक अंजाम तक नहीं पहुंचा। वर्ष 2011 में बंगाल की सत्ता में आने के बाद ममता ने वाम शासन में फोन टैपिंग के आरोपों की इसी तरह की जांच का आदेश दिया था।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Tue, 10 Aug 2021 09:46 AM (IST)Updated: Tue, 10 Aug 2021 09:47 AM (IST)
Bengal Politics: ममता दीदी की पेगासस जासूसी कांड की जांच आयोग वाली सियासत
पेगासस प्रकरण की जांच के लिए आयोग की घोषणा के दौरान अपने फोन को कवरकर मीडिया को दिखातीं ममता। फाइल

कोलकाता, जयकृष्ण वाजपेयी। पिछले माह दिल्ली जाने से पहले मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कथित पेगासस जासूसी कांड की जांच के लिए आयोग गठित करने की घोषणा की थी। सुप्रीम कोर्ट व हाई कोर्ट के दो पूर्व न्यायाधीशों वाला यह आयोग कुछ दिनों में जांच शुरू करेगा। परंतु अभी से ही यह सवाल भी उठने लगे हैं कि क्या इस कथित राजनीतिक जासूसी में आयोग के हाथ कुछ ठोस सबूत लगेंगे या नहीं? इस सवाल की खास वजह है।

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बंगाल के कई पूर्व नौकरशाहों ने स्पष्ट कहा कि नेताओं की जासूसी व फोन टैपिंग करने का कोई भी आरोप इस राज्य में अब तक साबित नहीं हुआ है। यहां तक कि पूर्व पुलिस महानिदेशक, मुख्य और गृह सचिवों ने भी कहा कि राज्य में समय समय पर राजनीतिक जासूसी के आरोप लगते रहे हैं। ममता बनर्जी भी बार-बार फोन टैपिंग के आरोप लगाती रही हैं। हालांकि इनमें से एक भी मामला अब तक तार्किक अंजाम तक नहीं पहुंच पाया है। वर्ष 2011 में बंगाल की सत्ता में आने के बाद ममता ने वाम शासन में फोन टैपिंग के आरोपों की इसी तरह की जांच का आदेश दिया था। परंतु आज तक उनकी फोन टैपिंग से जुड़े एक भी सबूत और न ही आयोग की रिपोर्ट सामने आई।

यही नहीं, पिछले एक दशक में ममता बनर्जी पर भी विपक्षी दलों के नेताओं व पत्रकारों के फोन टैप कराने के आरोप लगते रहे हैं। हाल में तृणमूल में शामिल हुए वरिष्ठ नेता मुकुल राय ने भाजपा में रहते हुए ममता सरकार पर कई बार फोन टैपिंग का आरोप लगाया था। ऐसे में पेगासस मामले में ममता की जांच आयोग वाली सियासत कितनी सफल होगी, यह तो वक्त ही बताएगा। पिछले एक दशक से ममता की जांच आयोग वाली सियासत चल रही है, जिसका बड़ा उदाहरण उनके द्वारा अब तक 15 से अधिक जांच आयोग गठित करना है। वर्ष 2011 में मुख्यमंत्री बनने के छह साल के भीतर विभिन्न मामलों की जांच के लिए ममता बनर्जी ने सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की अध्यक्षता में अलग अलग 13 आयोग गठित किए थे, जिस पर अब तक 33 करोड़ रुपये से अधिक खर्च हो चुके हैं, लेकिन राज्य विधानसभा में इनमें से केवल तीन ही आयोग की रिपोर्ट पेश हुई है। इन तीन रिपोर्टो में से दो लो-प्रोफाइल खुदकुशी की और तीसरी ममता शासन में हुए आमरी अस्पताल अग्निकांड की है, जिसमें 92 लोगों की जान गई थी। इन तीनों घटनाओं पर आयोग ने जो रिपोर्ट दी, वह पुलिस के पहले के ही निष्कर्षो के अनुरूप थी।

चुनाव पूर्व वादों के मुताबिक 2011 में ममता ने सत्ता संभालने के तुरंत बाद आठ आयोगों का गठन किया था। बाद में उनके शासन के दौरान हुई पांच और घटनाओं की जांच के लिए आयोगों का गठन किया गया। उनके सत्ता में आने से पहले हुई घटनाओं में से पांच हाई-प्रोफाइल मामले थे जिसमें 1971 में कोलकाता के काशीपुर-बरानगर में करीब 150 नक्सलियों और उनसे सहानुभूति रखने वालों के नरसंहार, 1970 में बर्धमान जिले में कांग्रेस समर्थक सेन परिवार के तीन सदस्यों की हत्या, 1982 में कोलकाता के बिजन सेतु पर 16 आनंद मार्गी साधुओं की हत्या, 21 जुलाई 1993 को ममता के नेतृत्व में राइटर्स अभियान के दौरान पुलिस फायरिंग में 13 कांग्रेस कार्यकर्ताओं की मौत और 1999 में मेदिनीपुर में 23 आदिवासियों की ट्रक से कुचल कर हुई मौत का मामला शामिल था।

इन सभी मामलों में आरोप माकपा और कांग्रेस पर लगा था। इसके बाद ममता सरकार के सबसे हाई-प्रोफाइल मामले में सारधा-रोजवैली समेत एक दर्जन से अधिक चिटफंड कंपनियों से जुड़ा घोटाला था, जिसमें तृणमूल के कई नेता-मंत्री मुख्य आरोपित हैं। इनमें से चार जांच आयोगों की रिपोर्ट सरकार के पास पड़ी है। चिटफंड घोटाले पर अवकाश प्राप्त जस्टिस श्यामल कुमार सेन आयोग ने 2014 में अपनी रिपोर्ट पेश की थी। 21 जुलाई की पुलिस फायरिंग पर जस्टिस सुशांत कुमार चटर्जी आयोग ने 2014 में ही अपनी रिपोर्ट दे दी थी, लेकिन अब तक कोई भी रिपोर्ट विधानसभा में पेश नहीं हुई। काशीपुर-बरानगर नरसंहार पर पूर्व जज डीपी सेनगुप्ता आयोग ने सितंबर, 2017 में रिपोर्ट जमा की थी। पर अब तक सच सामने नहीं आया। इसी तरह आदिवासियों की मौत की एनएन भट्टाचार्जी आयोग की रिपोर्ट 2018 के शुरू में ही सौंपी गई, लेकिन रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हुई।

जांच आयोग अधिनियम, 1952 के अनुसार किसी भी आयोग द्वारा रिपोर्ट सौंपने के छह महीने के भीतर राज्य सरकार को कार्रवाई के साथ पूरी रिपोर्ट विधानसभा में पेश करनी होती है। जिस आयोग को वास्तव में कार्यकाल के विस्तार की आवश्यकता थी, वह चिटफंड घोटाले की जांच करने वाला जस्टिस सेन आयोग था, क्योंकि यह जमाकर्ताओं के पैसे लौटा रहा था, लेकिन जिस तरह से इसके विस्तार से इन्कार किया गया और सेन परिवार हत्याकांड तथा बिजन सेतु की घटना पर आयोगों को बार-बार विस्तार दिया जाता रहा, इसे ममता की जांच आयोग वाली सियासत की बानगी ही कहा जा सकता है।

[राज्य ब्यूरो प्रमुख, बंगाल]


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