साहित्य से कट गई है आज की युवा पीढ़ी, फिर से जोड़ने की है जरुरत
हमारे महान साहित्यकारों की जीवनी समाज में बड़ा परिवर्तन ला सकती हैं। सही मायनों में बायोपिक उनपर बननी चाहिए।
कोलकाता, विशाल श्रेष्ठ। हमारे महान साहित्यकारों की जीवनी समाज में बड़ा परिवर्तन ला सकती हैं। सही मायनों में बायोपिक उनपर बननी चाहिए। खास बातचीत में जाने-माने हास्य कवि शंभू शिखर ने ये गंभीर बात रखी। उन्होंने कहा-'जब लोग प्रेमचंद और उनकी कहानियां रुपहले पर्दे पर देखेंगे तो उनमें संवेदना जगेगी और उनका समाज को देखने का नजरिया बदलेगा। युवा पीढ़ी जब 'दिनकर' की कविताएं सुनेगी तो उनमें परेशानियों से लड़ने की क्षमता विकसित होगी। वे अपने माता-पिता से भी जुड़ेंगे।
वक्त आ गया है कि फिल्म जगत के लोग मिल-बैठकर सोचें कि वे समाज को क्या दे रहे हैं।' अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हास्य कवि ने आगे कहा-'साहित्य में बहुत दम है। कलम की ताकत सत्ता को हिला सकती है। 'इंकलाब जिंदाबाद', 'मेरा रंग दे बसंती चोला' कोई नारा नहीं था बल्कि कविताएं थीं। इनमें इतना दम था कि लोग लाठियां खाने के लिए अपनी छाती आगे कर देते थे। दरअसल आज की युवा पीढ़ी साहित्य से कट गई है। किसी युवा से 10 साहित्यकारों के नाम पूछ लीजिए तो बता नहीं पाएंगे। जो बता पाएंगे, उन्होंने भी सिर्फ प्रतियोगितामूलक परीक्षाओं के लिए उन्हें याद रखा हुआ है।'
मूल रूप से बिहार के मधुबनी जिले के रहने वाले शंभु शिखर त्रुटिपूर्ण शिक्षा व्यवस्था और स्वार्थपूर्ण राजनीति को लोगों के साहित्य से कटने की प्रमुख वजह मानते हैं। उन्होंने कहा-'शिक्षा व्यवस्था में ढेर सारी खामियां हैं। राजनेताओं के एक वर्ग ने अपना हित साधने के लिए समाज को साहित्य से काटा, जिसका परिणाम आज हम भुगत रहे हैं।' उन्होंने इस बाबत बिहार का उदाहरण पेश करते हुए कहा कि आज बिहार में शिक्षा व्यवस्था किस स्तर पर है! पढ़ने और पढ़ाने वाला बिहारी लेकिन पढ़ने की जगह कोटा या देहरादून। हमारे बच्चे खेत और पेड़ बेचकर दूसरे राज्यों का रूख कर रहे हैं। साहित्य से दोबारा जुड़ने की जरुरत है।'
शंभू शिखर हालांकि मौजूदा हालात से निराश नहीं बल्कि उम्मीदों से भरे हुए हैं। उन्होंने कहा-'समाज में परिवर्तन अचानक से नहीं आता। जेपी आंदोलन के 35 साल बाद अन्ना आंदोलन देखने को मिला। जिन युवाओं पर आरोप लगता आया था कि वे राष्ट्र और अपनी संस्कृति को भूल चुके हैं, वही युवा हाथ में तिरंगा लेकर देशभर में 'तुम भी अन्ना, हम भी अन्ना' कर रहे थे। कहने का मतलब यह है कि आग राख के नीचे दबी रहती है। समाज व देश में बदलाव की जब भी उम्मीद दिखेगी तो राख के नीचे दबी चिंगारी को ज्वालामुखी का रूप लेने में वक्त नहीं लगेगा। बस नेतृत्व करने वाले की जरुरत है। स्वतंत्रता संग्राम के समय भी रोज-रोज आंदोलन नहीं होते थे। हर चीज में समय लगता है। जबतक मानव सभ्यता रहेगी, तबतक कोई न कोई आंदोलन होता रहेगा।'
शंभु शिखर ने मौजूदा दौर के बुद्धिजीवियों की भूमिका एवं उनके राजनीति के प्रति रुझान पर अफसोस जताते हुए कहा कि बुद्धिजीवियों को राजनीति में जाने का कोई अधिकार नहीं है। उन्हें सत्ता पक्ष व विपक्ष से ऊपर उठकर राष्ट्र, समाज व संस्कृति के हित के बारे में सोचना चाहिए। बुद्धिजीवियों की समाज में अग्रणी भूमिका होनी चाहिए लेकिन ज्यादातर बुद्धिजीवी वातानुकूलित किसानों की व्यथा लिख रहे हैं।
पश्चिम बंगाल के बारे में उन्होंने कहा-'इस देश में जो भी क्रांति हुई, उसका बीज बंगाल में ही बोया गया था। आजादी की पहली आवाज भी यहीं से उठी थी। बंगाल साहित्य, कला, राजनीति व आंदोलन के क्षेत्र में पूरे देश में सर्वोपरि रहा है। हमारा राष्ट्रगान बंगाल की ही देन है। पड़ोसी बांग्लादेश को अपना राष्ट्रगान भी यहीं से मिला। बंगाल का साहित्य बेहद समृद्ध है। कोलकाता तो जीवन का स्वाद है। यहां के लोग कला, खेल, संगीत के बहुत बड़े पारखी हैं।