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वाहवाही तो खूब मिली पर नहीं मिली नौकरी

-आभाव में दिन गुजार रही है चैंपियन पोली साहा -पदकों को देखकर भर आती है आंखें स्

By JagranEdited By: Published: Wed, 02 Dec 2020 07:47 PM (IST)Updated: Wed, 02 Dec 2020 07:47 PM (IST)
वाहवाही तो खूब मिली पर नहीं मिली नौकरी
वाहवाही तो खूब मिली पर नहीं मिली नौकरी

-आभाव में दिन गुजार रही है चैंपियन पोली साहा

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-पदकों को देखकर भर आती है आंखें स्नेहलता शर्मा, सिलीगुड़ी : पोली साहा एक ऐसा नाम जिसने टेबल टेनिस से ना सिर्फ शहर का बल्कि देश का परचम पूरे विश्व में लहराया। पोली साहा एक दिव्यांग है। वह गूंगी और बहरी हैं। जबकि टेलेंट इनमें कूट-कूट कर भरा हुआ है। देश के लिए कई पदक जीतने के बाद भी आज तक इन्हें एक सही नौकरी तक नहीं मिल पाई है। जबकि पदक जीतने पर उनको वाहवाही खूब मिली,आश्वासन खूब मिला। लेकिन नहीें मिली तो नौकरी।

लोग आते हैं और आश्वासन देकर चले जाते हैं। कई दरों पर गुहार भी लगाई किंतु अभी तक उन्हें कोई नौकरी नहीं मिल पाई है। इस बारे में इशारों की भाषा में उन्होंने बताया कि उसने इस मुकाम तक पहुंचने के लिए बहुत कड़ी मेहनत की है। लेकिन उसे दुख है कि उसे आज तक कोई सरकारी नौकरी तो दूर कोई ढंग की नौकरी भी नहीं मिल पाई है। वे अपने कोच भारती घोष के साथ कार्य करती हैं। उनके साथ मिलकर ही वे टेबल टेनिस का प्रशिक्षण देती हैं। जो पैसा मिलता है वो बहुत कम है। जिससे गुजारा हो पाना बेहद कठिन है। वहीं पोली साहा के बड़े भाई सुदीप साहा ने बताया कि पोली हम तीनों भाइयों से छोटी है। जब वो दो-तीन साल की थी तभी पता चला कि गूंगी और बहरी है। उसका बहुत इलाज कराया। लेकिन कोई खास लाभ नहीं हुआ। ऐसे में मां झरना साहा और पिता स्व. अनिल कुमार साहा ने पोली को टेबल टेनिस खिलाड़ी बनाने का निर्णय लिया। यह सोचकर टीटी का प्रशिक्षण देने का निर्णय लिया कि उसमें आत्मविश्वास पनपे। वो अपने आपको अलग-थलग ना समझे। इसके साथ ही स्कूल की पढ़ाई भी करवाई। टेबल टेनिस प्रशिक्षण के साथ पढ़ाई भी जारी रही। पोली ने नेताजी ग‌र्ल्स हाई स्कूल में दसवीं तक की पढ़ाई की है। किंतु दसवीं की परीक्षा पास नहीं कर पाई। आज पोली साहा का नाम देश में ही नहीं विदेशों में भी लोग जानते हैं । अफसोस यही है कि उसने जितनी मेहनत की है उसका फल नहीं मिल पाया। उसके पास अगर कोई सरकारी नौकरी होती तो वो आज अपने पैरों पर खड़ी होती। उसका आत्मबल बढ़ता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। नौकरी के लिए दर-दर भटकने के बाद लोग सिर्फ आश्वासन देते रहे। सिर्फ आश्वासनों का सहारा मिला और आज भी सही मुकाम की तलाश है। अब तो हालत यह है कि पदकों को देखकर आंखे भर जाती है। लगता है कि अब जिंदगी इन पदकों के भरोसे ही गुजारने की जरूरत होगी।

कहां-कहां पदक पाने में सफलता उल्लेखनीय है कि दिव्यांगो के लिए वर्ष 1993 में चैंपियनशीप ऑफ डेफ, कोलकाता, नेशनल गेम्स ऑफ डेफ, कोलकाता, नेशनल टी टी चैंपियनशीप ऑफ डेफ, इंदौर सहित अन्य कई प्रतियोगिता में वे विजेता रही। इसके अलावा एशिया पैसेफिक गेम्स ऑफ डेफ, मलेशिया में तृतीय स्थान हासिल कर देश का नाम रोशन किया। इसी कड़ी के तहत एशिया पैसेफिक गेम्स, ताइवान, व‌र्ल्ड गेम्स ऑफ डेफ, रोम,इटली में पांचवा स्थान हासिल किया और व‌र्ल्ड गेम्स ऑफ डेफ,आस्ट्रेलिया में चौथे स्थान पर रही।


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