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भूमि अधिकारों के मामले में दाजिर्लिंग व आसपास के चाय बागान श्रमिकों का जारी है शोषण

Darjeeling Tea Plantation दार्जिलिंग हिल्स समेत बंगाल के तराई क्षेत्र में चाय बागान श्रमिकों के साथ आज भी भेदभाव जारी है लिहाजा कम से कम उन्हें जमीन के अधिकार के साथ शोषण से मुक्त जीवन जीने का अवसर तो मिलना ही चाहिए।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Sat, 04 Dec 2021 12:44 PM (IST)Updated: Sat, 04 Dec 2021 12:45 PM (IST)
भूमि अधिकारों के मामले में दाजिर्लिंग व आसपास के चाय बागान श्रमिकों का जारी है शोषण
भूमि अधिकारों के मामले में दाजिर्लिंग व आसपास के चाय बागान श्रमिकों का जारी है शोषण। फाइल

राजू बिष्ट। विश्व की मशहूर चाय के लिए प्रसिद्ध स्थान है दार्जिलिंग। दार्जिलिंग हिल्स और तराई के प्राचीन इतिहास का यहां के आधुनिक चाय उद्योग से गहरा संबंध है। नेपाल और भूटान के बीच सीमा साझा करने वाले रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण दार्जिलिंग में अंग्रेजों की विशेष रुचि रही है। अंग्रेजों ने वर्ष 1835 में सैनिकों के लिए एक स्वास्थ्य केंद्र स्थापित करने के लिए सिक्किम से इस क्षेत्र को अपने कब्जे में लिया था।

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जैसे-जैसे यह क्षेत्र ब्रिटिश हितों के अनुकूल होता गया, उन्हें इस स्थान की आर्थिक व्यवस्था सुनिश्चित करने की जरूरत महसूस हुई। विभिन्न फसलों पर प्रयोग किए गए। बागवानी का जुनून रखने वाले सर्जन आर्चीबाल्ड कैम्पबेल वर्ष 1841 में बगीचे में चाय उगाने में सफल रहे। इस प्रकार यहां चाय की खेती शुरू हुई, जो बाद में उद्योग बन गया।

चाय बागान के मजदूरों के साथ जो भेदभाव अंग्रेजों के जमाने में हुआ करता था, वह आज भी है। इन मजदूरों को आज तक उनकी जमीनों का मालिकाना हक नहीं दिया गया है। उनको आज तक उनकी पुश्तैनी जमीनों का परजा पट्टा यानी भूमि अधिकार नहीं मिल सका है। उत्तर बंगाल के चाय बागान श्रमिकों की अवहेलना किस हद तक हुई है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1978 से 1980 के बीच बंगाल में भूमि सुधार लागू किए गए, जिसके माध्यम से बटाईदारों और भूमिहीन किसानों को भूमि अधिकार दिए गए, लेकिन वह अधिकार यहां के चाय बागान श्रमिकों को आज तक नहीं मिला है।

आज भी चाय बागान के मजदूर अर्ध-सामंतवादी व्यवस्था में काम करने को मजबूर हैं, जिसके तहत यदि वे अपने परिवार से किसी एक सदस्य को काम करने के लिए नहीं भेजते हैं, तो चाय कंपनी को यह अधिकार है कि वह उन्हें उनके पुश्तैनी घरों को छोड़ने के लिए कह सकती है, चूंकि तकनीकी रूप से भूमि अधिकार चाय कंपनी को मिला है, न कि कर्मचारी या उसके परिवार को। वर्ष 2019 में बंगाल सरकार ने चाय कंपनियों को ‘वैकल्पिक उपयोग के उद्देश्यों’ के लिए बगीचे में 15 प्रतिशत भूमि का उपयोग करने की अनुमति दी। आज चाय बागानों में फाइव स्टार होटल बनाए जा रहे हैं, लेकिन बंगाल सरकार श्रमिकों को उनकी पुश्तैनी जमीनों का परजा पट्टा देने से इन्कार कर रही है।

भूमिहीन सिनकोना गार्डेन वर्कर्स : वर्ष 1861-62 से दार्जिलिंग और कलिम्पोंग हिल्स क्षेत्र में रायल बोटेनिकल गार्डन कलकत्ता (अब कोलकाता) के अधीक्षक थामसन एंडरसन के निर्देशन में सिनकोना प्लांटेशन हुआ था। दरअसल उस समय दशकों से मलेरिया मृत्यु का प्रमुख कारण बना हुआ था और ब्रिटिश सरकार को अस्पतालों को कुनैन प्रदान करने के लिए सिनकोना प्लांटेशन की सख्त आवश्यकता थी। वर्ष 1906 के बाद यहां चार कुनैन कारखाने स्थापित किए गए थे। एक समय में कुनैन प्लांटेशन 26 हजार एकड़ से अधिक क्षेत्र में फैले हुए थे और लगभग सात हजार लोगों को प्रत्यक्ष रोजगार प्रदान करते थे। हालांकि चाय उद्योग की तरह इन सिनकोना बागानों में कार्यरत लोगों को भी अंग्रेजों द्वारा उनके भूमि अधिकारों से वंचित ही रखा गया था।

भूमिहीन वन ग्रामीण : वर्ष 2006 में भारत की संसद ने अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वनवासी अधिनियम, 2006 (एफआरए-2006) नामक वन कानून बनाया। यह ऐतिहासिक अधिनियम, वन ग्रामीणों, आदिवासी समुदायों और अन्य पारंपरिक वनवासियों के अधिकारों को कानूनी मान्यता देता है। इसमें कहा गया है कि सभी वन गांवों को राजस्व गांवों में परिवर्तित किया जाए और भूमि अधिकार एवं स्वामित्व स्थायी वनवासियों को हस्तांतरित किया जाए। वर्ष 2013 में बंगाल सरकार ने वन भूमि को राजस्व गांव में बदलने के लिए एक अधिसूचना जारी की। वर्ष 2014 में जलपाईगुड़ी व अलीपुरद्वार के पड़ोसी जिलों के लिए वन गांवों को राजस्व गांवों में बदलने के लिए एक अधिसूचना जारी की गई। हालांकि बंगाल सरकार ने दार्जिलिंग और कलिम्पोंग जिलों के वनवासियों को समान अधिकार प्रदान करने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया, जहां 2.6 लाख लोग वन क्षेत्रों में रहते हैं।

हमारा देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। ऐसे में हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि दार्जिलिंग हिल्स और तराई के लोगों के पास जश्न मनाने के लिए बहुत कुछ नहीं है। यहां के लगभग 80 प्रतिशत लोग अपने परजा पट्टा भूमि अधिकारों से वंचित हैं। बंगाल के इस क्षेत्र के लोगों को राजनीतिक रूप से इतना हाशिए पर डाल दिया गया है कि वे अपनी आवाज नहीं उठा सकते। वे न्याय और अपनी भूमि के अधिकार के लिए आज भी प्रतीक्षा कर रहे हैं।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी में वे उस व्यवस्था से न्याय पाने की अपनी एकमात्र आशा देखते हैं, जिसने आजादी के 74 वर्षो के बाद भी हमारे लोगों को उनके मूलभूत अधिकारों से वंचित रखा। वे सभी लोग नरेन्द्र मोदी में विश्वास करते हैं, क्योंकि उन्होंने कई ऐतिहासिक निर्णय लेकर पारंपरिक बाधाओं को तोड़ा है और पीढ़ियों से चली आ रही भेदभावपूर्ण प्रथाओं को खत्म किया है। यहां के लोगों को भरोसा है कि जमीन के अधिकार के साथ ही उनको शोषण से मुक्त जीवन जीने का अवसर भी प्राप्त होगा।

[सदस्य, लोकसभा और राष्ट्रीय प्रवक्ता, भाजपा]


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