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Sarat Chandra Chattopadhyay Death Anniversary: सैलानियों को लुभा रहा ‘आवारा मसीहा’ का ठौर

Sarat Chandra Chattopadhyay Death Anniversary बांग्ला साहित्य में रवींद्र नाथ टैगोर के अलावा कोई महान कथाकार हुआ तो वह शरत चंद्र चट्टोपाध्याय हैं।

By Preeti jhaEdited By: Published: Thu, 16 Jan 2020 03:37 PM (IST)Updated: Thu, 16 Jan 2020 03:37 PM (IST)
Sarat Chandra Chattopadhyay Death Anniversary: सैलानियों को लुभा रहा ‘आवारा मसीहा’ का ठौर
Sarat Chandra Chattopadhyay Death Anniversary: सैलानियों को लुभा रहा ‘आवारा मसीहा’ का ठौर

हुगली, इम्तियाज अहमद अंसारी। बांग्ला साहित्य में रवींद्र नाथ टैगोर के अलावा कोई महान कथाकार हुआ तो वह शरत चंद्र चट्टोपाध्याय हैं। वह शरत ही हैं जिन्हें पढ़कर आज भी आंखों के कोर गीले हो जाते हैं और जिनकी कहानियां दिल की धड़कनों को बढ़ा देती हैं। शरत की रचनाओं में समाज, परिवार की बारीकियों को बेहद सादगी व संजीदगी से उकेरा गया है। उनकी लेखनी में समाज के दबे-कुचले वर्ग को विशेष तौर पर प्रमुखता दी गई है। संभवत: यही कारण है कि समाज के एक हिस्से के विरोध का उन्हें सामना करना पड़ा। और शायद यही वजह है कि विख्यात रचनाकार विष्णु प्रभाकर ने उन्हें ‘आवारा मसीहा’ कहा था।

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साहित्य में रूचि रखने वाला हर कोई ‘आवारा मसीहा’ के ठौर को आज अपना गंतव्य बनाना चाहता है। उन्हे जानने-समझने के लिए बंगाल के हुगली जिला स्थित शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के पैतृक गांव देवानंदपुर में सैकड़ों सैलानी रोज खींचे चले आते हैं। उनका जीवन गरीबी व तंगहाली में गुजरा। अभावों के बावजूद उन्होंने अपनी लेखन की प्रतिभा की धार को कभी भी कुंद नहीं होने दी। लेखनी के बूते उन्होंने बांग्ला साहित्य जगत में एक अलग व प्रतिष्ठित स्थान बनाया। शरत बाबू की लेखनी ना केवल समाज के उस वर्ग की आवाज बनी, बल्कि उनकी रचनाओं में परिवार के आपसी रिश्ते बेहद रोचक तरीके से रेखांकित हैं।

टैगोर से भी ज्यादा प्रसिद्ध थे शरत बाबू:

चटर्जी परिवार : शरत बाबू, कवि रवींद्रनाथ टैगोर से भी ज्यादा चर्चित साहित्यकार थे। यह कहना है शरत बाबू के गांव देवानंदपुर चटर्जी परिवार का। यह वही परिवार है जिनका शरत के परिवार से घनिष्ठ रिश्ते थे। वर्तमान में चटर्जी परिवार की तीसरी पीढ़ी सुबीर चटर्जी आगे बताते हैं कि शरत बाबू बचपन में उनके घर के आंगन में खेलने आया करते थे। सुबीर की दादी सिद्धेश्वरी चटर्जी शरत के बचपन को बेहद करीब से देखी हैं। सुबीर आगे बताते हैं कि उनकी दादी शरत के बचपन की कई बाते बताती थीं। शरत को गांव के दत्त परिवार, जो उस दौर का जमीनदार परिवार था, पसंद नहीं करता था। चूंकि वो समाज में व्याप्त ऊंच-नीच, जात-पात के भेद-भाव जैसे विषयों को महत्व नहीं देते थे। यही कारण है कि शरत बाबू को उस परिवार का हमेशा विरोध का सामना करना पड़ा।

गांव लौटना चाहते थे शरत :

परिस्थितिवश शरत बाबू को गांव छोड़ विभिन्न इलाकों में जाना पड़ा। अपने मामा के घर भागलपुर में पलने-बढ़ने के बाद वापस कलकत्ता लौटे। हालांकि अपने जीवन के अंतिम दौर में शरत बाबू देवानंदपुर गांव लौटना चाहते थे। लेकिन उस दौर में गांव के संभ्रांत व उच्च जाति के लोगों के विरोध के कारण ऐसा मुमकिन नहीं हो पाया। सुबीर बताते हैं कि यदि शरत बाबू गांव लौटकर आते तो, शायद यहां की स्थिति कुछ और ही होती। यहां दर्ज उनकी स्मृति में इजाफा होता।

पैतृक आवास का धरोहर घोषित नहीं होना ग्रामीणों के लिए मलाल :

सुबीर बताते हैं कि शरतचंद्र के बांग्ला साहित्य जगत में उल्लेखनीय योगदान को देखते हुए उनके पैतृक आवास को धरोहर घोषित करने को लेकर गांव के लोगों ने काफी प्रयास किया, लेकिन कुछ कारणों से ऐसा हो नहीं पाया।


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