भारतीय मुसलमानों को डरने की जरुरत नहीं : मनोज तिग्गा
-नागरिकता संशोधन कानून मुस्लिम विरोधी नहीं -विरोधी कर रहे हैं वोट बैंक की राजनीति -
-नागरिकता संशोधन कानून मुस्लिम विरोधी नहीं
-विरोधी कर रहे हैं वोट बैंक की राजनीति
-लोगों में जारी है झूठ और भ्रम फैलाने का काम
अशोक झा,सिलीगुडी :
नागरिकता संशोधन विधेयक 2019 को कानूनी जामा पहनाने के बाद सीएए और एनआरसी के बीच अंतर समझना जरूरी है,क्योंकि इन दोनों को लेकर भ्रम का माहौल बना हुआ है। कहा जा रहा है कि यह भारतीय मुसलमामों के खिलाफ है। इस बात को नागरिकों को समझना होगा। घुसपैठिये को वोट बैंक के आधार पर अपनी राजनीति चलाने वाली पार्टिया हिन्दू-मुसलमान कर इस कानून को बदनाम कर रही हैं। यह कहना है मदारीहाट से भाजपा विधायक सह बंगाल विधानसभा में भाजपा विधायक दल के नेता मनोज तिग्गा का। दैनिक जागरण से विशेष बातचीत करते हुए उन्होंने कहा कि नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) जहा धर्म पर आधारित है वहीं राष्ट्रीय नागरिकता पंजी (एनआरसी) का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। सीएए को लेकर एक धारणा बन गई है कि इससे भारतीय मुस्लिम अपने अधिकारों से वंचित हो जाएंगे, लेकिन सच यह है कि ऐसा करना चाहें तो भी इस कानून के तहत ऐसा नहीं किया जा सकता है। सीएए को देशभर में प्रस्तावित एनआरसी से जोड़कर देखा जा रहा है, इसलिए ऐसी धारणा बनी है। सीएए को लेकर देशभर में अभी जो विरोध हो रहा है वह दो तरह की आशकाओं से प्रेरित है। पूर्वोत्तर में इसका विरोध इसलिए हो रहा है कि अधिकाश लोगों को आशका है इसके लागू होने पर उनके इलाके में अप्रवासियों की तादाद बढ़ जाएगी, जिससे उनकी संस्कृति और भाषाई विशिष्टता बरकरार नहीं रह जाएगी। तिग्गा ने कहा कि सन 1971 में स्वतंत्र बाग्लादेश का उदय उस समय हुआ था,जब भारत की संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा था और तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाधी को भारत के वीर रणबाकुरे सैनिकों के कमाडर जनरल सैम मानेकशा ने यह सूचना दी थी कि ढाका में पाकिस्तान पर विजय प्राप्त कर ली गई है। स्वतन्त्र देश बाग्लादेश का उदय हो गया है। आजाद भारत की पिछली सदी में यह महान विजय थी जो मानवता के संरक्षण के लिए लड़ी गई थी। बाग्लादेश का युद्ध मानवीय युद्ध था। भारत ने पूर्वी पाकिस्तान की मुस्लिम बहुल जनता के लिए यह लड़ाई लड़ी थी। 1947 में जिस बंगाल के दो टुकड़े करके उसके पूर्वी भाग को पूर्वी पाकिस्तान घोषित कर दिया गया था,उसने मजहब का मुलम्मा उतार कर अपनी मूल बाग्ला संस्कृति की स्तुति में अपनी पहचान बनाई थी। मोहम्मद अली जिन्ना के हिन्दू-मुसलमान के आधार पर गढे़ गये द्विराष्ट्रवाद के सिद्धान्त को कब्र में गाड़ने का ऐलान किया था। किसी भी मुल्क की सरकार वहा पर सदियों से बसे नागरिकों को अपनी जमीन-जायदाद छोड़ कर किसी दूसरे मुल्क में जाने के लिए मजबूर नहीं कर सकती। मजहब के आधार पर अगर उन पर अत्यचार करती है तो अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी में ऐसे मुल्क को अलग-थलग किये जाने के बाकायदा नियम कायदे बने हुए हैं। भारत के सन्दर्भ में हमें पूरे मामले को दूसरे फलक पर रख कर देखना होगा। क्योंकि 1889 में ब्रिटिश सरकार द्वारा अफगानिस्तान को स्वतन्त्र खुद मुख्तार मुल्क का रुतबा दिए जाने के बाद 1919 में श्रीलंका को इससे अलग किया और 1935 में बर्मा (म्यामार) को अलग किया और 1947 में पाकिस्तान को अलग किया और फिर 1971 में इसी पाकिस्तान से बाग्लादेश बना। पूरे अखंड भारत में हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी, जैन, बौद्ध आदि रहते थे। जैसे-जैसे इसका बंटवारा होता गया वैसे-वैसे ही इससे अलग हुए देशों में रहने वाले नागरिक शान्तिपूर्ण तरीके से अपना जीवन यापन करने लगे और सम्बन्धित देश के नियम कायदों से बन्धे रहे। परन्तु 1947 में जब हिन्दू-मुसलमान के आधार पर शेष बचे भारत का बंटवारा हुआ तो धर्म को राष्ट्रीयता की पहचान बना दिया गया । जिसका विरोध तब के भारत का संविधान लिखने वाले मनीषियों ने किया और स्वतन्त्र भारत के नागरिकों की पहचान को धर्म से ऊपर मानवीय आधार पर तय किया। संविधान लिखने वाली इस सभा में भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी मौजूद थे। वह 1948 तक हिन्दू महासभा में ही रहे। उन्होंने हिन्दू महासभा तत्कालीन पं. नेहरू की राष्ट्रीय सरकार में मन्त्री रहते हुए इसलिए छोड़ी थी क्योंकि वह सभा में गैर हिन्दुओं की सदस्यता भी खोलना चाहते थे, परन्तु 1951 में नेहरू की सरकार इसलिए छोड़ी कि वह 1950 में भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री लियाकत अली खा के बीच हुए उस समझौते के खिलाफ थे । जिसमें दोनों देशों के अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए एक-दूसरे देश में आयोग बनाने का फैसला किया गया था और उनके अधिकारों की गारंटी दी गई थी।