इसलिए मनाया जाता है क्रिसमस डे ...उत्तर बंगाल में क्रिसमस की धूम, जश्न में डूबे लोग
क्रिसमस जीसस क्रिस्ट के जन्म की खुशी में मनाया जाता है जीसस क्रिस्ट को भगवान का बेटा कहा जाता है क्रिसमस का नाम भी क्रिस्ट से पड़ा। जीसस क्रिस्ट को भगवान का बेटा कहा जाता है।
सिलीगुड़ी, जागरण संवाददाता। क्रिसमस को लेकर उत्तर बंगाल के पहाड़, चाय बागान ओर समतल यानी तराई में हर तरफ उत्साह है। इसे सिर्फ अब ईसाई समुदाय ही नही बल्कि आम लोग भी बतौर जश्न के तौर पर मनाते है। चर्च में विशेष प्रे में बड़ी संख्या में लोग जमा हुए। क्रिसमस को लेकर लोग अपने घरों और दुकानों को छोड़ कार्यालय तक की सजावट किये है। सड़को पर आपको कई लोग सैंटा क्लॉज की ड्रेस में भी नजर आएंगे। इस खास त्योहार के साथ-साथ आपको कई तोहफे भी मिलेंगे।
जनप्रतिनिधियों द्वारा लगातार बधाई देने का सिलसिला जारी है। बंगाल पर्यटन विभाग की ओर से शहर को सजाया गया है। सिलीगुडी, दार्जिलिंग, सिक्किम, बागडोगरा, खोरीबारी, माटीगाड़ा, कर्सियांग, मिरिक, कलिंगपोंग, जयगांव, जलपाईगुड़ी, कुचविहार अलीपुरद्वार समेत सभी स्थानों पर चर्च में आधी रात से भिड़ लगी हुई है। सभी स्थानों पर सुरक्षा के बेहद पुख्ता इंतजाम किए गए है।
इसलिए मनाया जाता है क्रिसमस डे ...
क्रिसमस जीसस क्रिस्ट के जन्म की खुशी में मनाया जाता है, जीसस क्रिस्ट को भगवान का बेटा कहा जाता है, क्रिसमस का नाम भी क्रिस्ट से पड़ा। जीसस क्रिस्ट को भगवान का बेटा कहा जाता है। बाइबल में जीसस की कोई बर्थ डेट नहीं दी गई है, लेकिन फिर भी 25 दिसंबर को ही हर साल क्रिसमस मनाया जाता है।
भारत से रहा है गहरा नाता:
12 वर्ष की आयु तक जीस की गतिविधियों का उल्लेख बाइबल में मिलता है, जब उन्हें यरुशलम में तीन दिन रुककर पूजास्थलों में उपदेशकों के बीच में बैठे, उनकी सुनते और उनसे प्रश्न करते हुए पाया गया। इसके बाद तेरह से उनतीस साल के जीसस के जीवन के बारे में कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता। जीसस के जीवन के इन रहस्यमय वर्षों को ईसाई जगत में साइलेंट ईयर्स, लॉस्ट ईयर्स या मिसिंग ईयर्स कहा जाता है। उसके बाद जीसस ने सीधे तीस वर्ष की उम्र में यरुशलम लौटकर यूहन्ना से दीक्षा ली और चालीस दिनों के उपवास के बाद लोगों को धार्मिक शिक्षा देने लगे। अंततः तैतीस साल की उम्र में उन्हें क्रूस पर लटका दिया गया
1887 ई में रूसी विद्वान और खोजकर्ता नोटोविच ने पहली बार जीसस के 'लॉस्ट ईयर्स' की खोज की और इस रहस्यमय कालखंड में उनके भारत में रहने का रहस्योद्घाटन किया था। कश्मीर भ्रमण के दौरान जोजीला दर्रे के समीप एक बौद्धमठ में नोटोविच की मुलाकात एक बौद्ध भिक्षु से हुई थी, जिसने उन्हें बोधिसत्व प्राप्त एक ऐसे संत के बारे में बताया, जिसका नाम ईसा था।
भिक्षु से विस्तृत बातचीत के बाद नोटोविच ने ईसा और जीसस के जीवन में कई समानताएं रेखांकित की। उसने लद्दाख के लेह मार्ग पर स्थित प्राचीन हेमिस बौद्ध आश्रम में रखी कई पुस्तकों के अध्ययन के बाद 'द लाइफ ऑफ संत ईसा' नामक एक पुस्तक लिखी। इस बेहद चर्चित किताब के अनुसार, इस्राइल के राजा सुलेमान के समय से ही भारत और इस्राइल के बीच घनिष्ठ व्यापार-संबंध थे। भारत से लौटने वाले व्यापारियों ने भारत के ज्ञान की प्रसिद्धि के किस्से दूर-दूर तक फैलाए थे। इन किस्सों से प्रभावित होकर जीसस ज्ञान प्राप्त करने के उद्धेश्य से बिना किसी को बताए सिल्क रूट से भारत आए और सिल्क रूट पर स्थित इस आश्रम में तेरह से उनतीस वर्ष की उम्र तक रहकर बौद्ध धर्म, वेदों तथा संस्कृत और पाली भाषा की शिक्षा ली।
उन्होंने संस्कृत में अपना नाम ईशा रख लिया था, जो यजुर्वेद के मंत्र में ईश्वर का प्रतीक शब्द है। यहां से शिक्षा लेकर वे यरुशलम लौट गए थे। जीसस के भारत आने का एक प्रमाण हिन्दू धर्मग्रन्थ 'भविष्य पुराण' में भी मिलता है, जिसमें जिक्र है कि कुषाण राजा शालिवाहन की मुलाकात हिमालय क्षेत्र में सुनहरे बालों वाले एक ऐसे ऋषि से होती है, जो अपना नाम ईसा बताता है। लद्दाख की कई जनश्रुतियों में भी ईसा के बौद्ध मठ में रहने के उल्लेख मिलते हैं।
विश्वप्रसिद्ध स्वामी परमहंस योगानंद की किताब 'द सेकंड कमिंग ऑफ क्राइस्ट: द रिसरेक्शन ऑफ क्राइस्ट विदिन यू' में यह दावा किया गया है कि ईसा ने भारत में कई वर्ष रहकर भारतीय ज्ञान दर्शन और योग का गहन अध्ययन और अभ्यास किया था। स्वामी जी के इस शोध पर 'लॉस एंजिल्स टाइम्स' और 'द गार्जियन' ने लंबी रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जिसकी चर्चा दुनिया भर में हुई। इएन कॉल्डवेल की एक किताब 'फिफ्थ गॉस्पेल' जीसस की जिन्दगी के रहस्यमय पहलुओं की खोज करती है। इस किताब का भी यही मानना है कि तेरह से उनतीस वर्ष की उम्र तक ईसा भारत में रहे।
शोधकर्ताओं ने इस आधार पर भी ईसा के लंबे अरसे तक भारत में रहने की संभावना व्यक्त की है कि जीसस और बुद्ध की शिक्षाओं में काफी हद तक समानता देखने को मिलती है। जीवात्मा का सिद्धांत भारतीय दर्शन का हिस्सा है। ईसा से पहले आत्मा की अवधारणा पश्चिम में नहीं थी। ईसा ने इसे परमेश्वर के अभिन्न अंग के रूप में स्वीकार किया, जिसे चित्रों में सफेद कबूतर के रूप में दर्शाया जाता है। माना जाता है कि सूली पर चढ़ाए जाने के बाद ईसा मसीह की मौत हो गई थी, लेकिन ज्यादातर आधुनिक शोधकर्ताओं का मानना है कि सूली पर चढ़ाए जाने के बाद जीसस की मृत्यु नहीं हुई थी। जीसस को बहुत जल्दी मृत घोषित कर नीचे उतार कर मकबरे में ले जाया गया, जहां उनके शिष्यों ने उनका उपचार किया। स्वस्थ होने के बाद वे अपनी मां मैरी और कुछ अन्य शिष्यों के साथ मध्यपूर्व होते हुए दोबारा भारत आ गए।
रूसी शोधकर्ता नोटोविच ने लिखा है कि सूली पर चढ़ाए जाने के तीन दिन बाद वे अपने परिवार और मां मैरी के साथ तिब्बत के रास्ते भारत आ गए। उन्होंने कुछ साल लद्दाख के उसी मठ में बिताए, जहां उन्होंने शिक्षा प्राप्त की थी। बाद में बर्फीली पर्वत चोटियों को पार करके, वे कश्मीर के पहलगाम नामक स्थान पर पहुंचे। इसके बाद जीसस ने श्रीनगर के पुराने इलाके को अपना ठिकाना बनाया, जहां 80 साल की उम्र में उनकी मृत्यु हुई। जर्मन लेखक होल्गर कर्स्टन ने भी अपनी किताब 'जीसस लिव्ड इन इंडिया' में क्रूस के बाद जीसस के भारत आने और मृत्युपर्यंत यहीं रहने की बात कही है।
इस्लामी हदीस 'कन्जुल उम्माल' के भाग 6 पेज 120 में लिखा है कि मरियम के पुत्र ईसा इस पृथ्वी पर 120 साल तक जीवित रहे। उन्नीसवीं सदी में इस्लाम के कादियानी संप्रदाय के संस्थापक मिर्जा गुलाम कादियानी ने ईसा मसीह की दूसरी और अंतिम भारत यात्रा के बारे में उर्दू में एक शोधपूर्ण किताब 'मसीह हिंदुस्तान' लिखी है। इस किताब में उन्होंने साक्ष्यों के आधार पर यह प्रमाणित किया गया है कि ईसा क्रूस की पीड़ा सहने के बाद जिन्दा बच गए थे।
स्वस्थ होने के बाद वे यरुशलम छोड़कर ईरान के नसीबस शहर होते हुए अफगानिस्तान आए थे। अफगानिस्तान में इस्राइल के बिखरे हुए बारह कबीलों को धर्म की शिक्षा देते रहे। अपने जीवन के अंतिम सालों में वे कश्मीर आ गए, जहां एक सौ बीस साल की आयु में उनका देहांत हुआ। उनके अनुसार, कश्मीर की रोज़ाबल इमारत जीसस का ही मकबरा है। कश्मीर में उनकी समाधि को लेकर बीबीसी द्वारा एक खोजपूर्ण और बेहद चर्चित रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी, जिसके अनुसार श्रीनगर के पुराने शहर में 'रोज़ाबल' नाम की पत्थर से बनी एक इमारत है। इस इमारत में एक मकबरा है, जहां ईसा मसीह का शव रखा हुआ है। यह कब्र किसी मुस्लिम की नहीं हो सकती, क्योंकि इसका रुख उत्तर-पूर्व की तरफ है। इस्लाम में कब्र का सिर मक्का की ओर होता है। स्थानीय लोगों का मानना है कि यह यूजा असफ की कब्र है, जो दूर देश से यहां आकर रहा था। ईरान में यात्रा के दौरान जीसस को यूजा असफ के नाम से ही जाना जाता था।
कब्र के साथ ही यहां कदमों के निशान भी उकेरे गए हैं। पैरों के ये निशान जीसस के पदचिन्हों से मेल खाते हैं, क्योंकि इन पर पैरों पर कील ठोकने के चिन्ह मौजूद हैं। अब तक की खोजों से यह माना जाने लगा है कि जीसस का आरंभिक और आखिरी समय भारत में ही बीता था। उन्हें भारत, उसकी संस्कृति और उसकी धार्मिक-आध्यात्मिक परंपराओं से प्यार था। जीजस को मानने वालो का कहना है कि वे इन बातों को नही जानते है।वे तो सिर्फ इस अवसर पर पूरे विश्व मे शांति और प्रेम का संदेश देना चाहते है।