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ग़ालिब और आम: महान शायर मिर्जा ग़ालिब आमों के बड़े रसिया थे

महान शायर मिर्जा ग़ालिब आमों के बड़े रसिया थे। रसीले स्वादिष्ट आमों से ग़ालिब की मुहब्बत बे-इंतेहा थी।

By Preeti jhaEdited By: Published: Sun, 19 May 2019 12:16 PM (IST)Updated: Sun, 19 May 2019 12:16 PM (IST)
ग़ालिब और आम: महान शायर मिर्जा ग़ालिब आमों के बड़े रसिया थे
ग़ालिब और आम: महान शायर मिर्जा ग़ालिब आमों के बड़े रसिया थे

सिलीगुड़ी, इरफ़ान-ए-आज़म। महान शायर मिर्जा ग़ालिब आमों के बड़े रसिया थे। रसीले स्वादिष्ट आमों से ग़ालिब की मुहब्बत बे-इंतेहा थी। हरियाणा के पानीपत के रहने वाले, गालिब के शागिर्द व उनकी जीवनी लेखक ख्वाजा अलताफ हुसैन हाली ने 'यादगार-ए-ग़ालिब' में ग़ालिब के 'आम प्रेम' को भी संजोया है। हाली हर साल आम के मौसम में टोकड़ी भर-भर कर ग़ालिब को आम के तोहफे भेजते थे।

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एक दफा बादशाह बहादुर शाह ज़फर ने ग़ालिब को अपने आमों के बाग में बुलाया। वहां, ग़ालिब मानो पेड़ों पर आमों को निहारने में ही खो गए। यह देख बादशाह ने बड़ी उत्सुकता से पूछा यूं क्या निहार रहे हो? गालिब ने कहा मैंने बुजुर्गों से सुना है 'दाने-दाने पे लिखा है खाने वाले का नाम'।

तो...? बादशाह के इस दूसरे सवाल पे गालिब ने बरजस्ता कहा 'मैं यही देख रहा हूं कि मेरा नाम किस-किस दाने पे लिखा है'! यह सुन कर बादशाह अपनी मुस्कान रोक न पाए। उसके बाद ग़ालिब को विदा होते वक़्त टोकडिय़ां भर-भर कर आम का तोहफा दिया।

अंग्रेजों की कंपनी सरकार द्वारा रोक दी गई अपनी पेंशन दोबारा शुरू करवाने के सिलसिले में कलकत्ता आए ग़ालिब को तब पेंशन तो नहीं मिल पाई लेकिन आम खूब मिले। उनके मेज़बान मिर्ज़ा अली सौदागर ने उन्हें जम कर आम खिलाया। बंगाल के मालदा का आम ग़ालिब के पसंदीदा आमों में था।

कलकत्ता के इमामबाड़े के निगरां को खत में ग़ालिब ने लिखा था 'मैं सिर्फ अपने पेट का गुलाम ही नहीं हूं बल्कि कमजोर भी हूं। मेरी ख्वाहिश है कि मेरी मेज सजी रहे और मेरी रूह को भी तस्कीन मिले। जो होशमंद हैं वो जानते हैं कि ये दोनों आमों से ही मुतमइन हो सकते हैं'!

आम का मौसम शुरू होने से पहले-पहले व पूरे मौसम तक ग़ालिब अपने चाहने वालों को बार-बार खत लिख कर यह ताकीद करना न भूलते थे कि वे 'आम लाना या भिजवाना न भूलें'।

शराब के बाद अगर ग़ालिब को कोई चीज सबसे ज्यादा पसंद थी तो वह थे आम। उनके खतों से पता चलता है कि आम खाने के लिए वह किसी भी घड़ी तैयार रहते थे। एक दफा मौलाना फजले हक ने आम के बारे में ग़ालिब से उनका ख्याल पूछा तो ग़ालिब ने कहा कि 'एक तो मीठा हो और दूसरे भरपूर हो'।

60 साल की उम्र में ग़ालिब द्वारा लिखे गए एक खत से उनका 'आम प्रेम' व दर्द दोनों झलकता है। उन्होंने लिखा कि अब वह ज्यादा नहीं खा सकते। एक बैठक में 10-12 ही, और अगर वे बड़े हों तो बमुश्किल छह-सात ही। अफसोस जवानी के दिन बीत गए, बीतने ही थे, अब तो जिंदगी के दिन भी खात्मे की ओर हैं। ग़ालिब के आम प्रेम को इसी से समझा जा सकता है कि उन्होंने बाजाब्ता आमों पे मसनवी (लंबी कविता) 'दर सिफाते आमबाह' लिखी है। 

एक और दिलचस्प वाकया है कि मिर्जा ग़ालिब को आम जितने पसंद थे, उनके एक मित्र हकीम रजीउद्दीन खान को उतने ही नापसंद थे। एक दिन दोनों मित्रों में आम पर बहस हो गई। ग़ालिब जहां आम की खूबियों पर खूबियां बता रहे थे वहीं उनके मित्र खामियों पर खामियां गिनवा रहे थे। उसी दौरान हकीम रजीउद्दीन खान ने देखा कि सड़क पर कुछ गदहे जा रहे हैं। वे गदहे सड़क किनारे पड़े आम के छिलके व गुठलियों के ढेर के पास से गुजरे तो उसे सूंघा और छोड़ कर आगे बढ़ गए। यह देख हकीम साहब की आंखों में चमक आ गई। वह तो मानो उछल पड़े। ग़ालिब का ध्यान खींचते हुए कहा कि 'देखो, गदहे भी आम नहीं खाते'। यह सुन कर ग़ालिब के चेहरे पर मुस्कान फैल गई। बड़े हाजिरजवाब तो वह थे ही। चट दे डाला 'बेशक, गदहे आम नहीं खाते'! 

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