जर्मनी से 40 लाख रुपये सालाना की नौकरी छोड़ पवन ने पकड़ी अलग राह, पहाड़ों को रहे संवार
उत्तराखंड के पवन पाठक ने लाखों की जॉब छोड़कर पहाड़ों को संवारने का जिम्मा लिया है। नीदरलैंड की मारलुस इस काम में उनका साथ दे रही हैं।
उत्तरकाशी [मनोज राणा]। हर युवा का सपना होता है कि वह अच्छी शिक्षा प्राप्त करने के बाद अच्छी नौकरी भी हासिल करे, लेकिन इससे इतर उत्तराखंड के देहरादून के इंदिरानगर निवासी पवन पाठक ने अलग राह पकड़ी। 35 वर्षीय पवन विदेश में अपनी अच्छी-खासी नौकरी छोड़ उत्तरकाशी जिले के नौगांव ब्लॉक स्थित ढुईंक गांव में पहाड़ की विरासत को संजोने में जुटे हुए हैं। पवन का ध्येय पहाड़ से हो रहे पलायन को रोकना, बंजर पड़ी खेती को आबाद करना, पहाड़ के पौराणिक मकानों को नवजीवन प्रदान करना और ईको कंस्ट्रक्शन करना है। उनकी इस मुहिम में विदेशी छात्र-छात्रएं भी हाथ बंटा रहे हैं।
मैकेनिकल इंजीनियरिंग हैं पवन
देहरादून से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में बीटेक करने के बाद पवन ने वर्ष 2013 से 2016 तक जर्मनी में फार्मा मॉडलिंग में एमबीए किया। इस दौरान उन्हें जर्मनी की एक कंपनी में 3.5 लाख रुपये का मासिक पैकेज भी मिल गया, लेकिन मन में कुछ नया करने का जुनून उन्हें वापस पहाड़ खींच लाया। पंकज ने बताया कि मार्च 2018 से वह डामटा के निकट ढुईंक गांव में फार्मा मॉडलिंग का कार्य करने में जुटे हैं। इसके तहत वह जीर्ण-शीर्ण मकानों का उद्धार, जैविक खेती और पहाड़ की पौराणिक विरासत को बचाने का प्रयास कर रहे हैं। अपने फार्म से इस वर्ष उन्होंने करीब दो लाख रुपये के जैविक सेब बेचे हैं। इसके अलावा वह फार्म में राजमा, आलू, दाल, मक्का, गेहूं आदि की फसलें तैयार करने में जुटे हुए हैं।
नीदरलैंड की मारलुस दे रहीं साथ
पवन ने बताया कि इस मुहिम में उनका साथ भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आइआइटी) रुड़की से पीएचडी कर रहीं नीदरलैंड की मारलुस भी दे रही हैं। वह पहाड़ की संस्कृति को जानने का प्रयास भी कर रही हैं। पवन के मुताबिक, बीते दो वर्षों में उन्होंने अपने फार्म में जो भी जैविक उत्पाद तैयार किए, उन्हें वह देहरादून की मंडियों में बेच देते हैं। इस मुहिम में उनका सहयोग देहरादून के ही मैकेनिकल इंजीनियर अंकित अरोड़ा समेत ढुईंक के ग्रामीण भी कर रहे हैं।
दो हेक्टेयर में कर रहे जैविक खेती
जैविक खेती के लिए पवन ने वर्ष 2018 में एक हेक्टेयर भूमि स्वयं खरीदी। इसमें सेब के करीब दो दर्जन पेड़ भी थे, जबकि एक हेक्टेयर भूमि उन्हें ग्रामीणों ने दी है। ग्रामीणों की यह भूमि वर्षो से बंजर पड़ी हुई थी।
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