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लोक साहित्य का ये सारथी समाज को दिखा रहा है एक नर्इ राह

लोक साहित्य के सारथी महवीर रवांल्टा का श्रेष्ठ साहित्य लोक भावना के स्तर पर व्यक्ति और समाज को चेतन कर एक राह दिख रहा है।

By Raksha PanthariEdited By: Published: Mon, 13 Aug 2018 02:28 PM (IST)Updated: Mon, 13 Aug 2018 02:28 PM (IST)
लोक साहित्य का ये सारथी समाज को दिखा रहा है एक नर्इ राह
लोक साहित्य का ये सारथी समाज को दिखा रहा है एक नर्इ राह

उत्तरकाशी, [शैलेंद्र गोदियाल]: किसी राष्ट्र की सभ्यता-संस्कृति को सजीव रखने की विधा साहित्य से बढ़कर कोई और नहीं हो सकती है, इसीलिए साहित्य का आधार ही जीवन माना जाता है। लोक संस्कृति, मानवीय समानता, हाशिये पर खड़े मनुष्य के जीवनस्तर में सुधार साहित्यकारों का कर्म रहा। इसी कर्म और कलम के पुजारी प्रसिद्ध साहित्यकार महावीर रवांल्टा हैं। इनका श्रेष्ठ साहित्य लोक भावना के स्तर पर व्यक्ति और समाज को चेतन कर एक राह दिख रहा है। 

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महावीर रवांल्टा का जन्म सरनोल गांव में 10 मई 1966 को माता रूपदेई देवी और पिता टीका सिंह राणा के घर हुआ। मन को झकझोरने वाली विकटताएं उन्हें विरासत में मिली। 1977 में पढ़ाई के लिए वह उत्तरकाशी आ गए थे। जोशियाड़ा स्थित जूनियर हाईस्कूल में साहित्यकार लीलाधर जगूड़ी ने भी उन्हें पढ़ाया। वर्ष 1970-80 के दौरान उत्तरकाशी में आए दिन काव्य गोष्ठियां होती थी। बस क्या था महावीर को भी काव्य गोष्ठियों में कविताएं सुनकर कविता लेखन की धुन सवार हुई। 

वर्ष 1983 में महावीर रवाल्टा की पहली कविता प्रकाशित हुई। बस तब से लेकर महावीर की कलम कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, लोक कथाएं व एकांकी के सृजन में निरंतर चल रही है। 1985 में उनका चयन स्पेशल पुलिस फोर्स में हुआ और उन्होंने ढाई साल तक सीमावर्ती क्षेत्रों में सेवाएं दी हैं। इसके बाद महावीर रवांल्टा का चयन फार्मासिस्ट में हुआ और उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जनपद के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र धरपा और बेरा फिरोजपुर में 18 वर्षों तक अपनी सेवाएं दी। वर्तमान में वह उत्तरकाशी जनपद के अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र आराकोट में सेवारत हैं। 

आराकोट उत्तरकाशी जनपद का सुदूरवर्ती क्षेत्र है। सरकारी सेवा में विभिन्न जगह रहते हुए भी इन्होंने कभी भी अपनी माटी और अपनी कठिनाइयों के दिनों को नहीं भुलाया, जिसकी छाप आज भी इनकी कृतियों और आखरों में साफ झलकती है। अपनी माटी व लोकसंस्कृति के प्रति असीम प्रेम के कारण ही लोगों ने इन्हें रवांल्टा सरनेम नवाजा, जिस कारण ये अपने नाम महावीर राणा की जगह महावीर रवांल्टा लिखते हैं।

वर्ष 1995 में इनके अथक प्रयासों से रवांल्टी भाषा की पहली कविता 'जन लहर में दरवालु' नामक शीर्षक से प्रकाशित हुई। अभी तक चार कविता संग्रह, 150 से अधिक कहानी, 25 बाल कहानी, 3 लोककथा संग्रह, 4 नाटक, 3 उपन्यास लिख चुके हैं। लोक प्रेम कथा पर आधारित नाटक गज्जू मलारी नाटक जल्द आने वाला है। वहीं महावीर रवांल्टा एवं उनके कथा साहित्य पर कई शोध व लघु शोध प्रस्तुत हो चुके हैं। महावीर रवांल्टा कहते हैं कि साहित्य, संस्कृति, लोक भाषा हमारी पहचान है। पहाड़ की कहीं विकटता को करीबी से जाना है। इन विकटताओं ने ही मेरा झुकाव सृजनात्मक पहल की तरफ मोड़ा है। 

महावीर रवांल्टा की कृतियां 

-सच के आर पार, अवरोहण, तुम कहां हो, समय नहीं ठहरता, उसके न होने का दर्द, टुकड़ा-टुकड़ा यथार्थ, दोस्त बडोनी, तेग सिंह लड़ता रहा, जहर का संघात, भंडारी उदास क्यों थे, प्रेम संबंधों की कहानियां (कहानी) 

-सफेद घोड़े का सवार, खुले आकाश का सपना, पोखू का घमंड (नाटक) 

-ननकू नहीं रहा (बाल एकांकी संग्रह) व  विनय का वादा (बाल कहानी संग्रह) 

-अब तक पगडंडियों के सहारे, एक और लड़ाई लड़, आप घर या बाप घर, अपना-अपना आकाश (उपन्यास) 

-आकाश तुम्हारा होगा, सपनों के साथ चेहरे, तुम कहां को चल पड़े, घर छोड़ भागती लड़कियां (कविता संग्रह) 

-त्रिशंकु (लघु कथा संग्रह), उत्तराखंड की लोक कथाएं (भाग एक और भाग दो), दैत्य और पांच बहनें, ढेला और पता (रवाईं क्षेत्र की लोक कथाएं) 

ये मिले सम्मान 

महावीर रवांल्टा को 1997 सैनिक और उनके परिवेश पर अखिल भारतीय कहानी लेखन प्रतियोगिता में पहला सम्मान मिला। मेरठ वेद अग्रवाल स्मृति सम्मान, गांधीवादी निर्मलादेवी पांडे, सेठ गोङ्क्षवद दास सम्मान जबलपुर, गौरव सम्मान रांची सहित कई सम्मान मिल चुके हैं। 

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